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________________ • अधिकार ] यतिशिक्षा [ ५३५ थोडीसी क्रिया भी बहुत उपयोगी होती है, अतएव तदनुसार व्यवहार करनेका प्रयास करना चाहिये। परिषहसे दूर भगनेके बुरे फल त्यज स्पृहां स्वःशिवशर्मलाभे, स्वीकृत्य तिर्यङ्नरकादिदुःखम् । सुखाणुभिश्चेद्विषयादिजातैः, संतोष्यसे संयमकष्टभीरुः ॥ ३७॥ " संयम पालनेके कष्टोंसे डरकर विषयकषायसे होनेवाले अल्प सुखमें जो तू सन्तोष मानता हो तो फिर तिर्यच नारकीके मिलनेवाले दुःखोंको तू स्वीकार करले और स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करनेकी अभिलाषा छोड़ दे।" उपजाति. विवेचन--उक्त अर्थ व्यतिरेकपनसे कहा गया है । हे साधु ! यदि तुझे संयममें जिसमें कि कष्ट नहीं है उसमें भी यदि कष्ट जान पड़ते हों और विषयों के सेवन करनेमें सुख जान पड़ता हो, तो फिर मोक्षकी आशा छोड़ दे, उसकी इच्छा भी छोड़ दे और नारकी तिर्यंच आदिके भयंकर दुःखोंको स्वीकार करले । इस सबका अर्थ स्पष्ट ही है और इसमें ग्रन्थकर्ताके हार्दिक भाव झलकते हैं । जीवकी वर्तमान दशाको सुधारनेकी शुभ इच्छासे कटाक्षरूपी कड़वी औषधिका पान कराया गया है, इसे बराबर समझकर इसके माशयके अनुसार व्यवहार करना चाहिये । परिषह सहन करने में विशेष शुभ फल. समग्रचिन्तातिहतेरिहापि, यस्मिन्सुखं स्यात्परमं रतानाम् । १ पाठांतर 'संतोष्यते' ऐसा पाठ लेना हो तब 'आत्मा' को कर्ता रुपसे लेकर दूसरोंको उपदेश किया गया है ऐसा सममें ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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