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________________ ५३४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [प्रयोदश अणीयसा साम्यनियन्त्रणाभुवा, मुनेऽत्र कष्टेन चरित्रजेन च । यदि क्षयो दुर्गतिगर्भवासगाs सुखा वलेस्तकिमवापि नार्थितम् ? ।। ३६ ॥ " समतासे और नियंत्रणा( परीषह सहन )से होनेवाले थोडेसे कष्टद्वारा अथवा चारित्र पालनेके थोड़ेसे कष्टद्वारा यदि दुर्गतिमें जानेकी और गर्भवासमें रहने के दुःख की परंपराका नाश हो जाता हो तो फिर तूने कौनसी इच्छित वस्तुको नहीं पाया ?" वंशस्थविल. विवेचन--समता प्राप्त करने के लिये मनोनिग्रह करनेकी आवश्यकता होती है, परन्तु समता आत्मिकधर्म होनेसे ऐसा करने में बिलकुल कष्ट नहीं होता है, अपितु सहज स्वरूप में रहनेसे और इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिका परित्याग करनेसे परम आनन्द और निर्दोष भात्मिक शांति बनी रहती है और संकल्पविकल्परूप दाहजन्य कष्ट नहीं होता है । इसीप्रकार चारित्र पालनेमें बाह्य कष्ट है, परन्तु धात्मसंतोष अपरिमित है, अतएव यह कष्ट, कष्ट नहीं कहला सकता है । तिसपर भी यदि इसको कुछ कष्ट कहा जाय तो भी यदि इसके द्वारा परभव में होनेवाले गर्भवास और नरक तिर्यचकी अनन्त वेदना मिट सकती हो तो हमको और क्या चाहिये ? शास्त्रकार अनेकों स्थानों में बारम्बार कहते हैं कि चारित्र और समतासे दुर्गतिका नाश हो जाता है और मोक्षके अनन्त सुखकी प्राप्ति होती है। ऊपरके ३२ वें श्लोकमें भी हम इस वचनकी सत्यता देख चुके हैं, इससे यह स्पष्ट है कि चारित्रके कष्टों और नारकी तिर्यचके कष्टोंमें प्रतिपक्षता है । इसप्रकार
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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