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________________ ५२० ] अध्यात्मकल्पद्रुम [त्रयोदश निमित्तके ही वस्त्रपात्रादि रखना तो अत्याचार ही है, और बहुधा संसारकी वृद्धि करनेवाले हैं। यहां तो सबपरसे ममत्वबुद्धिके परित्याग करनेका उपदेश किया गया है । धर्मोपकरणपर मूर्छा रखना भी परिग्रह है। येऽहः कषायकलिकर्मनिबन्धभाजनं, स्युः पुस्तकादिभिरपीहितधर्मसाधनैः। तेषां रसायनवरैरपि सर्पदामयैराख़त्मनां गदहृतेः सुखकृत्तु किं भवेत् ? ॥२६॥ " जिसके द्वारा धर्मसाधनकी अभिलाषा हो ऐसे पुस्तकादिके द्वारा भी यदि जो प्राणी पाप, कषाय, कंकास और कर्मबन्ध करते हैं तो फिर उनके सुखका क्या प्राप्तिसाधन हो सकता है ? जिस प्राणीकी व्याधि उत्तम प्रकारके रसायन प्रयोगसे भी यदि अधिक बढ़ने लगे तो फिर वह व्याधि किस साधनसे मिट सकती है ?" मृदंग. विवेचन-पुस्तक प्रभुके वचनोंका संग्रह है और वह इस कालमें संसार तैरनेका मुख्य साधन है; तिसपर भी कितने ही मुग्ध प्राणियों के लिये वे भी कर्मबन्धनका कारण होती है। आवश्यकतासे अधिक संग्रह करने और बराबर संभाल न रखनेसे जीवोत्पत्ति होकर उसका नाश हो जाता है अथवा पुस्तक लेनेवाले के प्रति कषायके भाव जाग्रत हो जाते हैं। इसीप्रकार कंकास भी हो जाता है । जैसे पुस्तक के लिये उसीप्रकार अन्य धार्मिक उपकरणों के विषयमें भी समझलें । अब ऐसे उपकरणों जो संसारनाशके परम साधन हैं यदि उनसे ही संसारकी वृद्धि . १ मृदंगमें १५ अक्षर होते है त. भ. ज. ज. र. त्मौ जौ रो मृदंगः - - - - - - - - - - - - - - - छदोनुशासन,
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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