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________________ अधिकार ] गुरुशुद्धिः [५७५ अपना तथा परायेकी भिन्नता न रक्खे-ऐसे पुरुष और महात्मा गुरुस्थानमें शोभा देते हैं। धर्मशुद्धिके सम्बन्धमें इस अधिकारमें कोई उल्लेख नहीं किया गया है। ग्यारवें अधिकारमें इस सम्बन्धमें कुछ लेख लिखा गया था और गुरुवस्वकी मुख्यता समझनेसे और उनकी पसन्दगीमें भूल न करनेसे धर्मतन्त्रकी प्राप्ति होती है इस नियमके मनुसरणसे ही धर्मसम्पाची यहां कोई उझेख नहीं किया जान पड़ता है । इस अधिकारके पांचवे श्लोकपर विवेचन करते हुए बताया गया है उसप्रकार धर्मकी पसन्दगीमें अपने तर्ककोविचारशक्तिको पूरा अवकाश देना चाहिये । विशेषतया धर्ममें प्रतिपादन किये देवका स्वरूप देखना चाहिये। वे रागद्वेषरहित और दूसरे असाधारण गुणोंसे युक्त हो तो वे चाहे सो क्यों न हों परन्तु उनका मार करना चाहिये। माधुनिक स्थिति ऐसी है कि धर्मकी ओर अन्तःकरणका प्रेम कम होता जाता है। इसका कारण सम्पूर्ण अभ्यास करने में प्रमादके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है । सामान्य स्वरूप जाननेसे उनमें अनेक तर्क होते हैं और उनके निवारण करनेका अवकाश न मिले अथवा संयोग न मिले अथवा लज्जासे न पूछे-इन सब बाबतोंमे नवीन पद्धती अनुसार अभ्यास करनेवाले धर्मगुरु पौर तदनुसार लेख लिखनेवाले और व्याख्यान देनेवाले विद्वान बहुत कुछ कर सकते हैं । तर्ककी प्राचीन कोटियोंके स्थानमें विज्ञानशास्त्रकी अर्वाचीन शोधे नवीन संस्कारवालों पर शिघ्र ही प्रभाव डालती है। इन सब बातोंपर गुरुमहाराज ही विचार कर सकते हैं। साधुवर्गके गुरुमहाराजोमें मुनिसुन्दरसूरिके समयमें भी कितनी ही कमी जान पड़ती है। यह अधिकार भी उस समयकी व्यवहारदृष्टि (Practical points of view)से लिखा गया है । इति सविवरणो देवगुरुधर्मशुद्धिनामा द्वादशोऽधिकारः
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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