SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 591
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम . द्विादश निमज्जन्तं जन्तुं नरककुहरे रचितुमलं, गुरोधर्माधर्मप्रकटनपरात्कोऽपि न परः ॥ " नरकरूप गडढेमें गिरते हुए जीवोंको पुण्य और पापका फल बतानेवाले गुरुके बिना दूसरे कोई पिता, माता, भाई, प्रिय स्त्री, पुत्रोंका समूह, मित्र, मदोन्मत्त हस्ती, अश्व, सुभट और रथ, स्वामी या सेवकवर्ग इस प्राणीकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं है।" इसलिये संसारसमुद्रमें गिरते हुएको बचानेवाले गुरुमहा. राज सचमुच माता, पिता, बंधु, मित्र, अथवा जो कुछ कहें सब हैं। ऐसे सद्गुरुको ढूंढकर उनकी सेवा करना और उनकेद्वारा शुद्ध देव तथा धर्मको जानना चाहिये । गुरुकी सेवामें मुख्य स्थान विनयको है । इस गुणसे धर्मप्राप्ति, विद्याप्राप्ति आदि शीघ्र तैयार हो जाती है। गुरुमहाराजकी सेवा कर शुद्ध धर्मको ग्रहण करना चाहिये जिसका स्वरूप साधारणतया ग्यारवें और बारहवें श्लोकमें बताया गया है। अधिक हाल गुरुमहाराजसे जानें ।। इस युगमें गुरुके बिना ही सर्वज्ञान प्राप्त करनेकी अधिक आकांक्षा रहती है, पराधीन वृति पसंद नहीं आती है; परन्तु जैनशास्त्रोंकी रचना और पद्धति अनुसार ऐसा होना कठिन है । ऐसे ज्ञानसे लाभके बदले हानि अधिक होती है; और वास्तवमें बिचारकर देखे तो वर्तमान युगकी शिक्षा भी गुरुके बिना प्राप्त - करना असम्भव है। अगले अधिकारमें यह स्पष्टतया बताया जायगा कि साधु कैसे होने चाहिये । गुरुको शास्त्रकार जो ऐसा महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं उसके लिये उन स्वयंको भी अपना उतरदायित्वपन भलीभांति समझना चाहिये । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार फेरफार करते रहें, उपदेश : और उद्देश लोकांचे अनुसार नहीं, परन्तु आगे-पिछेका योग्य विचार कर शुद्ध वस्तुस्वरूप बतावें और
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy