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________________ .. गुरुशुद्धिः अधिकार] [४५५ बताये धोका पालन करना । इसप्रकार जो प्राणी पाचरण करता है वह पूर्वके पापोंका नाशकर महासुख साधन प्राप्तकर अन्तमें सब दुःखोंका अत्यंताभाव करता है। इस श्लोक और अन्यत्र भी देवशनसे पहिले जो गुरु शन रंक्खा गया है वह सूचक है। पहले बताये अनुसार 'देव' को बतानेवालेभी गुरुमहाराज होनेसे शिष्यवृत्तिकी अपेक्षासे 'गुरु की देवसे भी अधिक मुख्यता बतलाते हैं, यद्यपि 'देव' तो गुरु और शिष्य दोनोंको एक समान आराध्य है। धर्ममें लगानेवाले ही सच्चे माता-पिता हैं. माता पिता स्वः सुगुरुश्च तत्त्वा. प्रबोध्य यो योजति शुद्धधर्मे । न तत्समोऽरिःक्षिपते भवाब्धौ, यो धर्मविघ्नादिकृतेश्च जीवम् ॥१०॥ "जो धर्मका बोध कराकर शुद्ध धर्ममें लगावे वेही तस्वसे सच्चे माता-पिता हैं, वे ही सचमुच हमारे हितस्वी हैं और उन्हींको सुगुरु समझें। जो इस जीवको सुकृत्य अथवा धर्मके विषयमें अन्तराय करके संसारसमुद्रमें फैंक देते हैं उनके समान कोई वैरी नहीं है।" उपजाति. विवेचन-'पातीति पिता' जो पालन करे सो ही पिता है । इसलिये नरक निगोदसे जो उगार सके वे ही सच्चे पिता हैं। इसी प्रकार 'दुःखसे तारनेवाली माता' और अपने भी वे ही कहलाते हैं कि जो अपना भला होना चाहें और उसके लिये भरसक प्रयत्न करे। गुरुमहाराज भी वे ही कहलाते हैं कि जो शुद्ध धर्ममें प्रवृत करें । धर्मके प्रतापसे दुःखोंका नाश होता है । इसके विपरीत जो धर्म में अन्तराय देते हैं उनके बराबर कोई दुष्ट नहीं हैं।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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