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________________ ४५४ ] अध्यात्मकल्पद्रम [द्वादश तात्त्विक हित करनेवाली वस्तु. कुलं न जातिः पितरौ गणो वा, विद्या च बन्धुः स्वगुरुर्धनं वा । हिताय जन्नोर्न परं च किञ्चित्, किन्तादृताः सद्गुरुदेवधर्माः ॥६॥ _" कुल, जाति, मा बाप, महाजन, विद्या, सगेसम्बन्धी, कुलगुरु अथवा धन के दूसरी कोई भी वस्तु इस प्राणाके हितके लिये नहीं होती है। परन्तु आदर किये (भाराधन किये ) शुद्ध देव, गुरु और धर्म ही (हित करनेवाले हैं)।" उपजाति. विवेचन-ऊँच कुलमें के उत्तम जातिमें जन्म हुआ हो अथवा बहुत-सी विद्या पढ़ा हो या बहुत-साधन संचय किया हो या हुआ हो तो इनसे इस जीवका कुछ भी हित नहीं हो सकता है । पहिले ममत्वमोचनके चारों अधिकारमें हम पढ़ चुके है कि पुत्र, कलत्र, धनादि वस्तुएँ तो जिस जिसप्रकार अधिक प्रमाणमें मिलती हैं त्यो त्यो संसार-बन्धन बढ़ता जाता है; परन्तु वे भवचक्रके एक भी आरेको कम नहीं कर सकते हैं। अनादि कालसे रागमें रचा हुआ रंक जीव कुछ भी नवीन नहीं करता है और धन, स्त्री, वैभव या विद्याके मदमें या मोहमें मस्त होकर महादुःख परंपराको प्राप्त होता है। दुःखपरम्परासे सदैवके लिये बचना हो तो शास्त्रकार इसका एक उपाय बतलाते हैं और वह यह है कि शुद्ध गुरुका आश्रय लेना और उनके बताये देवकी सेवा करना और उनके १ पितरौ स्थाने पितरो इति पाठान्तरं पितृवंश इत्यर्थः । २ श्व इति पाठान्तरं ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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