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________________ अधिकार ] गुरुशुद्धिः [॥५ वाली भाशा भी गीतार्थ बहुत विचारकर करते हैं, जबकि अधुरी तपास और अवलोकनके भाधारपर स्वपूर्ती समझके अनुसार हुमा भगीतार्थका हुकम दिखने में उत्तम और मनको अच्छा लगनेवाला हो फिर भी लाभदायक नहीं होता है; परन्तु हानिकारक होता है। कई बार तद्दन संसारवासमें सुख माननेवाले विषयानन्दी गोरजी और श्रीपूज्यों तरफ दृष्टिरागी श्रावक बहुत भाव प्रगट करते हैं, परन्तु शास्त्रकार यहां स्पष्ट शब्दोंमें कहते हैं कि उनके माश्रित रहकर किया हुआ धर्म भी निष्फल है । इसके उपरान्त साधु कहलानेवालोंमें भी दृष्टिराग नहीं रखना चाहिये । ये मेरे गुरु हैं और ये मेरे गच्छके हैं ऐसा विचार गुणानुरागीके हृदय में न आना चाहिये । वेष मान्य है, अवगुण न जान पड़े तब तक दूरसे ही सामान्य रीति द्वारा नमन करना योग्य है, परन्तु पूजा गुणकी ही होती है और अन्तर राग भी उसीपर होना चाहिये । इसीप्रकार गुरु होने योग्य साधुको तो यह मेरे श्रावक है ऐसी वृत्ति स्वार्थ साधनेकी बुद्धिसे होना ही न चाहिये। इतनी बात स्पष्ट हो जानेपर उपाध्यायजीका कहा हुमा वचन समझमें आजायगा । उपाध्यायजीका कहना है किराग न करसो कोई नर कोईसु रे, नवी रहेवाय तो करजो मुनिसुंरे; मणी जिम फणी विषनो तिमि तेहोरे, रागनो भेषज सुयश स्नेहोरे ॥ दृष्टिराग मिथ्यात्वजन्य है। राग तो किसीके साथ न करना चाहिये, परन्तु मोहनीयकोंके उदयसे राग किये बिना न रहा जाय तो गीतार्थ गुरुपर राग करना चाहिये, क्यों कि यह जीव संसारदशामें है इससे यह एकदम रागसे मुक्त नही हो
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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