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________________ ve] अध्यात्मकल्पद्रुम [द्वादश विवेचन-दृष्टिरागद्वारा दो प्रकारसे बात बिगड़ती है। प्रथम अमुक धर्म-दर्शन निमित्त दृष्टिराग होता है। फिर उनके बड़से बड़े धर्माध्यक्ष चाहे जितने दुराचारी क्यों न हो, " महाराजा लाईबल केस" जैसी फजिती कोटों पर चढ़कर जगतकी बत्रीशीपर चढ़ते हों, फिर भी भोले प्रेमी उसी भावसे 'जय जय' करते रहते हैं। दूसरा दृष्टिराग अमुक व्यक्ति निमित्त होता है। अपने गुरु चाहे जितने विषयी, सांसारिक तथा भात्मदशामें निंद लेते हों, फिर भी चौथे श्लोकमें कहे अनुसार उन्हीके जहाजमें बैठनवाले जीव संसारयात्रामें निष्फल होते हैं। इसीप्रकार दृष्टिरागसे प्रहण किये हुए गुरुकी आज्ञासे धर्मनिमित्त चाहे जितने सदाचरण क्यों न किये हों, परन्तु दृष्टिरागरूप मिथ्यात्वशल्य नष्ट न होनेसे उसको कुछ भी फल नहीं हो सकता है। मिथ्यास्वरूप अज्ञानसे भरे हुए अगीतार्थ गुरु देशकालादि ज्ञानसे रहित होते हैं, और एक बार उनके ऊपर ऊपरसे उत्तम दिखाई देनेवाले उपदेशसे दान, तपस्या, उजमणा या वरघोड़े चढ़ाये जावे तो भी उससे नैश्चयिक ज्ञानके प्रभाव होनेके कारण स्वपर विवेचनरहित केवल शुभ व्यवहारके कारण लाभ नहीं उठा सकते हैं। जमानेकी आवश्यकताको न समझनेवाले, विषयमें पासक्त और बाह्य आडम्बरवाले गुरुके वचनोंको पालन करनेकी आवश्यकता नहीं है, ऐसा शास्त्रमें भी कहा गया हैं। टीकाकार "गच्छाचारपयन्ना" में से निम्नस्थ गाथा उद्धृत करते है। अगीयत्थस्स वयणेणं, अमियंपि न धुंटए । गीयत्थस्स वयणेणं, विसं हलाहलं पिवे ॥ अर्थात् 'अगीतार्थ' के वचनसे अमृत भी न पीना चाहिये, जब कि गीतार्थके वचनसे हलाहल विष हो तो उसे भी पीजाना चाहिये । इसका कारण स्पष्ट ही है । दिखनेमें विरुद्ध जान पड़ने.
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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