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________________ मिलता हों और व्यवहारमें देखा जाता हो, उस सुखका वास्त. विक स्वरूप, पुण्यपापके कारण, भवान्तरमें उसके द्वारा होनेवाले परिणाम, और यहांपर करने योग्य मुख्य मुख्य कर्तव्योंका भान कराना यह अध्यात्म ग्रन्थोंकी बहुत बड़ी सेवा है। वास्तविक बात यह है कि कह पुरुष संसारका सर्वथा त्याग नहीं कर सक्ते हैं और धन, स्त्री, पुत्रादिपर बहुत ममत्व रखते हैं । दुनियाके अनुभवियोंके लिये इसमें कोइ नवीनता नहीं है। ममत्व कितने हट तक कार्य करता है इसका चित्रण करते हुए एक विद्वानने कहा है कि यदि मोक्षके गड्डे बांधे जाते हो और गडेवाला दो रूपया मांगता हो तो यह जीव उसके साथ खीचातानी करके भावको कम करनेका प्रयत्न करे, और रुपया सबा रुपया देनेकी बातचीत करे और जितना कम हो सके उतना खर्च कर शेष बालबच्चों के लिये छोडजाना चाहे । ऐसी हमारी स्थिति है और हम स्वयं इसका सदैव अनुभव करते हैं इसलिये किस प्रकार इस धनका स्वरूप समझमें आसके, किस प्रकार यह ममत्व कम हो, किस प्रकार यह आसक्ति घटे, और किस प्रकार आत्माके सत्य स्वरुपको प्रगट करनेकी इच्छा हो इसके साधनोंको ढूढनेकी अत्यन्त आवश्यकता है । वर्तमानकालमें यह आवश्यकता हमारे समक्ष बड़े आकरे स्वरूपमें आ पडी है क्योंकि साध्यबिन्दु धार्मिक तत्त्वचिन्तवनका रहना अत्यन्त कठिन है । जीवनके सख्त कलह और भावनाओंका वैचित्र्यपन ये इस कालके विपरीत पडनेवाले लक्षण हैं। हमारी भावनामें कुछ आधिभौतिक, कुछ राजकीय, कुछ इन्द्रियार्थरत और कुछ बेढंगी होजाती है ऐसी सुझोंकी धारणा है, कथन है और अमुक अपेक्षासे इनसे हतोत्साह भी होजाते हैं । ऐसे समयमें अध्यात्म ग्रन्थ अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होते हैं । हमारी भावनाकी ( अथवा लक्ष्यार्थ की ) स्पष्टता नहीं है। इस हकीकतको अधिक स्पष्टतासे समझने की आवश्यकता है। • भावना ( Ideal ) को प्रत्येक मनुष्यको स्पष्ट लक्ष्य स्पष्टताकी रखना चाहिये। जैसो भावना रक्खी जाती है वैता आवश्यकता, बनने का सर्व प्राणियोंका उद्देश्य होता है और उसमें जितने अंश तक अस्थिरपन अंथवा लाप
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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