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________________ आपकार ] धर्मशुद्धिः [.९९ माणिक और हीरा ) हो तो किमतमें लखोगुना अन्तर हो जाता है। रसायन-भस्म किया हुआ पारा आदि एक तिल मात्रसे भी कम खिलाया जावे तो भी यदि वह शुद्ध होता है तो शरीर को बहुत लाभ पहुंचाता है इसीप्रकार दान, पूजा, पौषध मादि अनुष्ठानोंके लिये समझे । पुरुष बहुधा सदैव संख्याकी भोर देखते हैं, और इसीलिये कष्ट भोगते हैं, परन्तु समझदारको उसकी शुद्धता-सुन्दरता-तात्त्विकताकी भोर देखना चाहिये। Never look to the quantity of your actions but pay particular attention to the quality thereof. .. यह वाक्य अत्यन्त रहस्यमय है। हमने कितना किया यह देखना चाहिये, परन्तु कैसा किया यह देखनेकी विशेष आवश्यकता है । सम्पूर्ण जीवनमें प्रभुभक्तिमें एक वक्त भी यदि वीर्योल्लास हो जाय तो भी सब भवके दुःख दूर हो सकते हैं । इसीप्रकार भावश्यक क्रियामें विचारणाके परिणाममें बराबर पश्चात्ताप होनेपर पौषधमें अपूर्व भावशुद्धि होकर समता प्राप्त हो तो अपना काम बन जाये और वैसी स्थिति प्राप्त करनेके लिये ही सर्व शास्त्रकार प्रयास करते हैं। ___इसके विपरीत यदि शुद्धिकी अपेक्षा विना अनेक क्रियाये की जावे परन्तु शुद्धता कुछ भी न हो और ऊलटी अशुद्धता प्रवेश करती हो तो फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जिस हेतुसे क्रिया की जाती है वह हेतु पुरा नहीं होता है और कदाच अल्प लाभ होता है तो वह रुपयेमें एक दमड़ी के बराबर है । इस सब अधिकारका यह ही उद्देश्य है कि थोड़ा कर लेकिन बराबर कर, बाहरकी किमत तथा देखावसे न लुभाजा । . । उक्त अर्थ दृष्टान्तसे बताते हैं। दीपो यथाल्पोऽपि तमांसि हन्ति,
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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