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________________ धर्मशुद्धिः अधिकार ] [११९ ख्यात्या म बयापि हितं परत्र च । तदिच्छादिभिरायति ततो, मुधाभिमानग्रहिलो निहसि किम् ॥७॥ • " मनुष्योंके स्तुति करने मात्रसे कोई गुणी नही हो सकता है, अपितु बहुत ख्यातिसे पानेवाले भवमें भी (परलोकमें भी) हित नहीं हो सकता है। इसलिये यदि भागामी भवको तुझे सुधारना है तो व्यर्थ अभिमानके वश होकर ईयां आदि करके आगामी भवको भी क्यों बिगाड़ता है ?" उपजाति. विवेचन-देवचंद नामक पुरुष या अन्य सैकड़ों पुरुष यदि हिराचन्दकी स्तुति करें, तो इससे हिराचन्दमें कोई गुण नहीं पा सकता। उसमें यदि साविकपना होगा तो रहेगें, वरना स्तुतिसे तो कदाच ऊलटी हानि होगी। यहाँ चाहे जितनी स्तुति हो, भाट-चारण भाकाशमें चढ़ा दे तो भी परलोकमें इसकी असर नहीं होती है । वहां किसी स्तुति पानेवाले के लिये पक्षपात नहीं. होता है इसीप्रकार उनके लिये कोई अलग स्थान भी नहीं होता है। स्तुतिके पात्र बननेकी अधिक आवश्यकता है। यहां एक बात और बता देनेकी आवश्यकता है कि अपना वर्तन अपने गुणोंके अनुसार रखना चाहिये, इच्छानुसार अपनी स्तुति हो उसप्रकार संसारको बताने निमित्त वर्त्तन न रखना चाहिये; फिर भी स्तुतिके पात्र आत्माको बनानेमें कोई बाधा नहीं है; अपितु वैसा होने की ही आवश्यकता है। अन्य पुरुष स्तुति करे उसमें गुण-हानि नहीं होती है, परन्तु जिसकी स्तुति होती है उसको उसे कराने के लिये किसी भी प्रकारका प्रयत्न न करना चाहिये, और विद्यमान गुणोंकी भी स्तुति सुनकर उस. पर ध्यान न देना चाहिये।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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