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________________ ४१८ ] अध्यात्मकल्पद्रुम . [ एकादश इमौ परेषामपि तैश्चतुर्व प्युदासतां वासि ततोऽर्थवेदी ॥६॥ " जीस प्रकार अपनी प्रशंसा तथा निन्दासे अनुक्रमसे मानंद तथा खेद होता है उसीप्रकार दूसरोंकी प्रशंसा तथा निन्दासे मानंद तथा खेद होता हो अथवा इन चारोंपर यदि तू उदासीनवृत्ति रखता हो तो तू सच्चा जानकार है।" उपेन्द्रवन. विवेचन-जो ऊपर कहा गया है वह ही यहां भी कहा गया है । दूसरा पुरुष चाहे जो हो, चाहे वह मित्र हो या शत्रु हो, परन्तु जब उस पर गुणवान होनेसे प्रमोद हो तब शास्त्रके रहस्यकी जान करी हुई ऐसा समझना चाहिये अथवा वे चारों वस्तुऐं स्वगुणप्रशंसा, स्वदोषनिन्दा, परगुणप्रशंसा, परदोषनिन्दाइन पर उदासीन वृत्ति आजाय तो यह अधिक उत्तम है, अर्थात् इन ओर ध्यान देनेका अवसर ही प्राप्त न हो, केवल आप अपने योग्य रस्ते काम चलाया करे ऐसी उदासीनवृत्ति प्राप्त हो सके तो अधिक उत्तम है, परन्तु कितनी ही बार उदासीनवृत्ति के स्थानमें बेपरवाही प्रवेश कर जाती है जिससे सचेत रहने की आवश्यकता है। यहाँ जो उदासीनवृति बतलाई गई है उसको जान बुझकर अज्ञ बनना उचित नहीं है, परन्तु उसके जाननेकी और स्वाभा. विक लक्ष्य ही न रखना चाहिये । श्री शांतिनाथजीके स्तवनमें कहा गया है किमान अपमान चित्त सम गिने, सम गिने कनक पाषाणरे वंदक निंदक सम गिने, ऐसा होय तू जानरे ॥ ऐसी स्थिति प्राप्त करनेका यहाँ उपदेश है । गुणस्तुतिकी अपेक्षा हानिकारक है. भवेन्न कोऽपि स्तुतिमात्रतो गुणी,
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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