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________________ ४०४] अध्यात्मकल्पद्रुम [दशा होनी चाहिये । चेतन शुद्ध है, ऐवरहित जवेरात है, कोहिनूर है; परन्तु अनादि अभ्याससे अपनी शुद्धतापर कर्मके पर्दे डाल रक्खे है जिससे उसकी शुद्धता दृष्टिगोचर नहीं होती है । उसकी शुद्ध स्थिति समझने निमित्त अभी की स्थिति अशुद्ध स्थिति है, यह समझना चाहीये और यह ही सम्पूर्ण अधिकारका विषय है । संसारसे वैराग्य प्राप्त करनेकी बहुत आवश्यकता है, कारण कि जो दुःख होते हैं वे सब संसारभ्रमणके कारण ही होते हैं और यदि विषयकषायपर विजय प्राप्त की जाय तो संसारभ्रमण मिट जाता है। ___ संसारपर निर्वेद ( वैराग्य ) प्राप्त करनेके तीन कारण है-एक इच्छित वस्तु न मिलकर अनिच्छित वस्तु मिलना जिसको शास्त्रकार दुःखगर्मित वैराग्य कहते हैं, दूसरा भात्माका झूठा ज्ञान होनेसे वैराग्य होता है जिसको मोहगर्मित वैराग्य कहते हैं और तीसरा आत्माका शुद्धस्वरूप जानकर-समझकर विचारकर संसारपर सचमुच उदासीनता लाना उसे ( सद्ज्ञानसंगत ) ज्ञानगर्भित वैराग्य कहते हैं । वस्तुस्वरूपके वास्तविक ज्ञान होनेके पश्चात् होनेवाले तीसरी किस्म के वैराग्यसे भवभ्रमणका दुःख मिटता है और मोक्षसुखकी प्राप्ति होती है। वैराग्यद्वारके साथ साथ मनुष्यभवकी दुर्लभता समझना अत्यावश्यक है । इस भवमें जो योग मिला है वैसा बार बार शिघ्रतया मिलना कठिन है । शास्त्रांतरगत कई दृष्टान्त जो तेरवें श्लोकमें दिये गये हैं वे मनन करने योग्य है | वांचनकी कितनी ही हक़ीकत चखनेकी होती है कितनी ही गले उतारनेकी और कितनी ही पचानेकी होती है । इसीप्रकार यह विषयभी पचानेका है। मुँहमें डालकर, चबाकर, गले उतारकर, पचाना 1 See Bacon's essay on Studies.
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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