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________________ ३९६ ] अध्यात्मकल्पद्रम [ दशवाँ उसप्रकार तू अनेक कष्ट सहन करता है, उसीप्रकार लड़केके लिये बहुत-सा धन बटोरकर छोड़जाने निमित्त अत्यन्त प्रयास करता है, इस्त्रीप्रकार आदरके लिये भी परिश्रम करने में भी कुछ बाकी नहीं रखता है और शेठाई निमित्त तो मरा जाता है; परन्तु तू जरा विचार तो कर कि इसभवमें इन कारणोंसे क्या कुछ लाभ सिद्ध हो सकता है ? पैसोंके लिये पैसे एकत्र करना तो एक प्रकारका सन्निपात है और लड़के निमित्त एकत्र करना भी मूर्खता है। किन लड़कोंने बहुत-सी पैतृकसम्पति प्राप्तकर अपने पिताका आभार माना है ? यह शब्द कुछ कठोर मालूम होगा, परन्तु यह सत्य है । इससे यह मतलब नहीं है कि पिताका पुत्रकी और कुछ भी कर्तव्य नहीं है, परन्तु पापारंभ और. कष्ट सहन कर सम्पत्ति छोड़जानेको कोई पिता बाध्य नहीं है । इसीप्रकार प्रतिष्ठा अनिश्चित है और शेंठाईको जाते हुए देर नही लगती है । इसप्रकार इस भवमें तो व्यर्थ परिश्रम ही होता है और परभवमें पापके भारसे लदा हुआ जीव नारकी और निगोदमें अनन्तकाल पर्यंत भटकता रहता है। यदि कदाच तकरारके लिये इसभवमें थोड़ा-सा सुख है ऐसा मानों तो भी वह कितने काल तक रहनेवाला है ? मनुष्य आयुष्य इस जमानेमें मध्यमरूपसे ७५ वर्षकी मानी जाती है और उसमें भी महामारी आदिके कोपसे अथवा अन्य किसि व्याधि तथा अकस्मातसे बीचमें ही मृत्युके मुखमें जानेमें देर नहीं लगती है। तब हे जीव ! तू क्यों व्यर्थ आकर्षित होकर सबको बिगाडता है ? कितनी ही बार खोटी आशाओंसे आकर्षित होकर और कितनी ही बार कर्तव्यके झूठे विचारोंमे फँसकर यह जीव मुग्धपनके लिये उत्तम आशयसे भी अनेक बुरे कामोंकी श्रेणी बना डालता है; किन्तु वह योग्य विचार नहीं करता है इसलिये ऐसी दशाको प्राप्त होता
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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