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________________ ३५४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ दशवाँ जिससे प्रत्येकका स्थान भिन्न होता है। ऐसे अनुबन्धस्थान असंख्य हैं । ये सर्व अध्यवसायस्थानको आगपीछे मरणसे स्पर्श करके पूरे करते हैं तब भावसे एक बादर पुद्गलपरावर्तन होता है और अल्प कषायोंदयरूप अध्यवसाय होनेपर मृत्युको प्राप्त हो, उसके पश्चात् फिर चाहे जितने स्थानों में मृत्युको प्राप्त क्यों न हो परन्तु वे नहीं गिने जासकते हैं; परन्तु उसके प्रश्चात् अनन्तर अध्यवसाय स्थानमें मृत्युको प्राप्त हो वह ही गिना जा सकता है । इसप्रकार सब अध्यवसायस्थानोंमें अनुक्रमसे चलता हुआ काल करें तब भावसे सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन होता है। इस स्वरूपमें बादर पुद्गलपरावर्तनके चार भेद कहे गये हैं ये कुछ उचित जान पड़ेगें, क्योंकि इनमें बहुत कम भव करने पड़ते हैं, (प्रमाणमें ), परन्तु शास्त्रकारका कहना है कि इस बादरके चार भेद तो समझने निमित्त ही बताये गये हैं, उनके कहनेका दूसरा प्रयोजन नहीं है। इनके समझने पर सूक्ष्म भेद ग्रहण किये जा सकते हैं, इसलिये इनको बताया गया है, अन्यथा इस जीव ने अनन्त पुद्गलपरावर्तन किये और फिर भी जो करेगा उनको सूक्ष्म समझना चाहिये । हे जीव ! इन स्वरूपोंको पढ़ कर विचार करने पर आँखे भर आयगी और यह सब दृश्य दृष्टिके सामने नाचने लगेगा। ऐसे ऐसे अनन्ते पुद्गलपरावर्तन तूने किये हैं और यदि धर्म न करेगा तो ऐसे अनन्ते पुद्गलपरावर्तन फिर भी करने पड़ेंगे; परन्तु इनमें फिरसे न भटकना भी तेरे हाथकी बाजीका खेल है। अतएव उठ, प्रमाद त्याग कर, धर्म कर और उच्च स्थिति प्राप्त कर । अधिकारी होनेका यत्न कर. गुणस्तुतीवाञ्छसि निर्गुणोऽपि, सुखप्रतिष्ठादि विनापि पुण्यम् ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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