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________________ अधिकार ] वैराग्योपदेशाधिकारः [३४५ हैं। व्रतादिक अनुष्ठानोंकी आज्ञा भी पुरुषार्थके लिये ही है। कर्मके वशीभूत हुआ जीव केवल कर्मवादके हठसे मुक्त नहीं हो सकता है, कारण कि कर्मकी प्रचूरता हो तो उसका नाश नहीं हो सकता है; पुरुषार्थ बिना कोका क्षय होना सर्वथा असंभव है और मोक्ष माननेवाले जैनी पुरुषार्थद्वारा काँका सर्वथा क्षय होना मानते हैं । इसलिये वे एकान्त कर्मवादी कदापि नहीं कहे जा सकते हैं । टीकाकार उत्तराध्ययन सूत्रका पाठ लिखकर बताते हैं कि: अप्पा नइ वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ।। • “ मेरी आत्मा वेतरणी नदी है, और वह ही शाल्मली वृक्ष है, और वह ही कामधेनू है और वह ही नन्दन बन है।" उत्तम संयोग निष्पन्न करनेकी शक्ति रखनेवाले महान् आत्माओंके चरित्र जगतविख्यात हैं। लोकरंजन और आत्मरञ्जन. कस्ते निरञ्जन ! चिरं जनरञ्जनेन, धीमन् ! गुणोऽस्ति परमार्थदृशोति पश्य । तं रञ्जयाशु विशदैश्चरितैर्भवाब्धौ, यस्त्वां पतन्तमबलं परिपातुमीष्टे ॥४॥ "हे निर्लेप ! हे बुद्धिमान् ! लाखों समय जनरंजन करने से तुझे कौन-सा गुण प्राप्त होगा उसको परमार्थदृष्टिसे तू देख, और विशुद्ध आचरणद्वारा तू तो उसको (धर्मको) रंजन कर कि जो निर्बल और संसारसमुद्र में पड़ता हुआ तेरा आत्माका रषख करनेको शक्तिमान हो सके।" वसंततिलका.
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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