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________________ ३४४ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ दशबाँ " हे आत्मन् ! तू ही मुग्ध ( अज्ञानी) है और तू ही ज्ञानी है, सुखकी अभिलाषा करनेवाला और दुःखका द्वेष करनेवाला भी तू ही है और सुख-दुःखको देनेवाला तथा भोगनेवालाभी तू ही है, तो फिर तेरे स्वहितकी प्राप्ति निमित्त प्रयास क्यों नहीं करता है ?" उपजाति. विवेचन-ऊपरके श्लोकमें परिणामहित निमित्त प्रयास करने का उपदेश किया गया है परन्तु शिष्य शंका करता है कि यत्न वो देवाधीन है इसलिये हम किसप्रकार परिणामाहत निमित्त प्रयास करे ? तब गुरु उत्तर देते हैं कि हे शिष्य ! यह आत्मा ही ज्ञानी है और यह आत्मही अज्ञानी है अर्थात् जब तक इसको ज्ञानावरणीय कर्म लगे हुए हैं तब तक यह अज्ञानी है और उनको हटा देनेसे यह ज्ञानी होजाता है। सुखको यह चाहता है और दुःखको सर्व संयोगोमें यह धिक्कारता है । उन सुखदुःखको उत्पन्न करनेवाला भी यह स्वयं ही है, कारण कि सुखदुःखकी प्राप्तिका कर्मबन्धपर आधार है। इस बातसे स्पष्ट है कि किये हुए कर्मको भोगे विना मुक्ति नहीं हो सकती है । इस विचारसे यह न समझे कि निरान्त कर्मपर दृष्टि रखकर बैठे रहे, अपितु इससे यह समझे कि नये कर्म न बांधे और पूर्व किये हुए कोंको आत्मासे अलग करनेका (निर्जरा करनेका ) प्रयास करें । कितने ही पुरुषोंकी धारना है कि जैनी कर्मवादी है परंतु यह कहना उचित नहीं है। प्राणियोंको पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिये और फिर भी यदि सफलता न मिल सके तो समझना चाहिये कि — कर्म' अनुकूल नहीं है। यह जैनशास्त्रका मुख्य सिद्धान्त है, किन्तु मनुष्यों ने इसे भूलादिया है और उस भूल ही के कारण जैन को कर्मवादी मानने लग गये है । यदि वे केवल कर्मवादी हों तो कभी भी मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकते
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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