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________________ ३२० ] अध्यात्मकल्पद्रुम " हे चित्तवैरी । मैने तेरा ऐसा कौन-सा अपराध किया है कि जिससे तू मुझे कुविकल्परूप जालमें बांधकर दुर्गतिमें फेंक देता है ? क्या तूं यह मनमें विचार करता है कि यह जीव मुझको छोड़ कर मोक्षमें चला जायगा ( श्रतः मुझको पकड़ कर रखता है ) ? परन्तु क्या तेरे रहने के लिये दूसरे असंख्य स्थान नहीं हैं ? " वसंततिलका. विवेचन - शान्त स्थान में, शान्त समयमें, अनुकूल संयोगो शान्त जीव अपने गत कृत्यों-विचार वर्त्तनका अवलोकन करता है तब उसको यहां वर्णित स्थिति प्राप्त होती है । तब थरमामीटर लगानेवालेके नेत्रों में से बेरके सदृश बड़े बड़े आंसु गिरने लगते हैं । संसार उसको विष सदृश कडुवा जान पड़ता है, इसलिये वह फिर मनको उपदेश देकर भविष्यमें ऐसा न करने को सावधान करता है । यह स्थिति प्रतिक्रमणादि अवस्था में प्राप्त होती है । यह लिखना यहाँ अप्रस्तुत नहीं होता इसलिये लिखा जाता है कि आवश्यक क्रियाके इसप्रकार विचारकर करनेकी अत्यन्त घ्यावश्यकता है । जैसे तैसे डावाँडोल मनसे आधे घण्टे में प्रतिक्रमणको समाप्तकर यह समझनेवाले कि इससे मेरे आत्माका उद्धार हो गया है वह चाहे जो क्यों न माने, परन्तु किये हुए पापका निरीक्षण कर, अन्तःकरण से पश्चात्ताप कर, फिर वैसा कदापि न करनेका निश्चय करना, नहीं करनेका अभ्यास डालना, यह ही आवश्यक क्रियाका उद्देश है । कहनेका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वैसा न करें परन्तु योग्य रीति से, शुद्ध मनसे करना, ऐसा न हो सके तबतक उस दशाकी भावना रखकर प्रमादरहित होकर करनेका अभ्यास डालना यह ही निर्देश है। ऐसी शान्त अवस्था में यह जीव ऊँची सीढ़ी. गुणस्थानपर नव
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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