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________________ अधिकार ] विदमनाधिकार [ ३१९ समीप खड़े हुए जासूस ( Detective ) को नहीं देखता है, झूठी साक्षी देनेवाला लोभको ही देखता है, परन्तु फिर जो कैद की सजा होनेवाली है उसकी ओर ध्यान नहीं देता है । यह सब मनुकी शत्रुता है । मन उसको विपरित मार्ग में दौड़ाता है । इसका कारण ऊपर के श्लोक में बताये अनुसार कल्पनाशक्तिका जोर तथा तर्कशक्तिके अंकुशका अभाव है । अनुभवरसिक योगी भी गा गये हैं कि :-- मुक्तितया अभिलाषी तपीया, ज्ञान ध्यान अभ्यासे, वैरि कांई एह चिंते, नाखे अवळे पासे । हो कुंथुजिन ! मनडुं कीम ही न बाजे ॥ इसप्रकार मन महाज्ञानी मुमुक्षुओं को भी उलटे मार्ग में भटकानेवाला है और तीसरे लोक में कहे अनुसार यदि वह ही मन वशमें हो तो एक क्षणभर में मोक्षसुखकी प्राप्ति करा सकता है । वचनके उच्चारण तथा कायाकी प्रवृत्तिका आधार मनके हुक्म पर है, इसलिये यदि मन परवश हो गया तो फिर वचन तथा कायापर कुछ भी अंकुश नहीं रह सकता है । मन, वचन और कायाको वश में रखना अत्यन्त कठिन अवश्य है किन्तु फिर भी यह हमारा अत्यावश्यक कर्तव्य है और इन तीनों में परस्पर ऐसा सम्बन्ध है कि यदि एक मन जो वशमें हो जावे तो फिर शेष सब वशमें हो गया समझ लेना चाहिये | मन तरफ उक्ति. रे चित्तवैरि ! तव किं नु मयापराद्धं, यद्दुर्गतौ क्षिपसि मां कुविकल्पजालैः । जानासि मामयमपास्य शिवेऽस्ति गन्ता, तत्किं न सन्ति तव वासपदं ह्यसंख्याः ॥१०॥
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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