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________________ ३१४] अध्यात्मकल्पद्रुम [नवमा न साधनाचं पवनादिकस्य, किं त्वेकमन्तःकरणं सुदान्तम् ॥७॥ " जप करनेसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती, न दो प्रकारके तप करनेसे ही मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है, इसीप्रकार संयम, दम, मौनधारण अथवा पवनादिककी साधना आदि भी मोचप्राप्ति नहीं करा सकती; परन्तु ठीक तरहसे वशमें किया हुआ केवल एकमात्र मन ही मोक्षकी प्राप्ति करा सकता है !" उपजाति. . विवेचन--इसका अर्थ बिलकुल स्पष्ट ही है । चाहे ओंकारादिके जप करो या उपवासादि तप करो, ध्यान धरो या आस्रवको रोको, इन्द्रियोंका दमन करो या मौन धारण करके बैठ जाओ, आसनस्थ रहो या ध्यानका आडम्बर करो, गुफामें प्रवेश करो या हिमालयके शिखर पर चढ़ो, जनसमूहके कोलाहलके बिचमें रहो या निर्जन बनके एकान्त मध्यभागमें जाकर . बैठ जाओ; परन्तु जब तक तुमने अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं किया, जब तक वह दूर देशोंकी यात्रा किया करता है, जब तक उसको स्वपरका ध्यान नहीं है जब तक वह ईर्षासे भरा रहता है, जब तक वह अमुक नियमानुसार नहीं चल सकता है, तब तक ये सब किसी गिनतीमें नहीं हैं, सर्व प्रयास भस्थान है, अयोग्य है, दुःखदायी है, दिखावमात्र हैं। इसीके अनुसार अनुभवी योगी आनन्दघनजी महाराज कह गये हैं कि-" मन साध्युं तेने सब ही साध्युं, यह बात नहीं खोटी "। अनुभव. रसिक महात्माके ये शब्द भूरे पूरे सार्थ हैं, सूचक हैं, बहुत कुछ ग्रहण करने योग्य हैं और इसीके साथ २ जब वे कहते हैं कि यदि कोई पुरुष यह कहता है कि मैने अपने मनको वशीभूत
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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