SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकार] चित्तदमनाधिकार .. [ स] झान अर्थात् शास्त्रका अध्ययन, अध्यापन, श्रवण, मनन भादि। ध्यान अर्थात् धर्मभ्यान, शुक्लध्यान आदि । तप अर्थात् बारह प्रकारके कर्मोंको तपानेवाला निर्जरा करनेवाला तप । पूजा अर्थात् तीन, पांच, पाठ, सत्तर, ईकीस, एकसौमाठ आदि भेदयुक्त द्रव्यपूजा । ये सब वस्तुयें-ये सब बाह्य अनुष्ठान अच्छे होमेपर भी यदि मन आधीन नहीं है तो ये सब व्यर्थ हैं। ऊपरके श्लोकमें कहा गया है कि मनोनिग्रह बिना यमनियम व्यर्थ हैं। यहाँ बाह्य मनुष्ठानोंकी निरर्थकता बताई गई है । उपर्युक्त शब्दोंमें कहा गया है कि जिसका मन वशमें नहीं है उसका पढ़ना, तप करना तथा वरघोड़ा चढ़ाना आदि सब बाह्य आडम्बर व्यर्थ हैं। अतः उत्तम अनुष्ठानों के साथ साथ मनको वशमें रखनेकी अत्यन्त आवश्यकता है । जिसके मनमें कषाय न हो अर्थात् कषायसे जो मनमें चिन्ता तथा आकुलव्याकुलता रहती है वह न हो ऐसे शुद्ध प्राणीको अपना मन वशमें रखना 'राजयोग' है, अथवा योगकी परिभाषामें कहा जाय तो यह 'सहजयोग' है । यहाँ पर उद्देश तथा उपदेश इतना ही है कि मनमें जो दुष्ट संकल्पविकल्प होते हैं उनको दूर करदो और मनको एकबम अंकुशमें रक्खो । इसको स्वतंत्र करदेना हानिकारक है, भययुत है, और दुःखश्रेणिका कारण है।। मन सिद्ध किया उसने सब कुछ सिद्ध किया. जपो न मुक्त्यै न तपो द्विभेदं, न संयमो नापि दमो न मौनम्।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy