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________________ अधिकार ] चितदमनाधिकार [ ३०९ उसीप्रकार काल भी नहीं, उसीप्रकार मित्र भी नहीं और शत्रु भी नहीं। मनुष्य के संसारचक्रमें घुमनेका एक मात्र कारण मन ही है।" उपजाति. विवेचन-सुख दुःख सदैव होते रहते हैं। कितनी ही बार जीव यह विचार करता है कि गोत्र देवता अथवा अधिष्ठायक देवता दुःख अथवा सुख देते हैं। कितनी ही बार समय खराष है ऐसा कहता है और कितनी ही बार यह जीव कल्पना करता है कि स्नेही से सुख और शत्रुसे दुःख मिलता है; किन्तु यह सब व्यर्थ है। शानकार कहते हैं कि:" सुख दुःख कारण जीवने, कोई प्रवर ना होय । कर्म आप जे भाचर्या, भोगवीए ते सोय ॥" फर्मके उदयसे ही दोनों सुख तथा दुःख होते हैं । यह स्पष्ट है कि कर्मबन्धका आधार मनके संकल्पोंपर है और उसपर और विशेष विवेचन किया जायगा, इसलिये मित्रोंके सुख देने तथा समयके अनुकूल होने का आधार भी मन ही पर है । संसार. भ्रमणका हेतु मनके वशीभूत हो जाना है । संसार ये बराबर फिरनेवाला चक्र है । एक बार इसे जोरसे फेरने पश्चात् इसको रोकने निमित्त मजबूत ब्रेक ( Brake ) की आवश्यकता होती है और वह ब्रेक मनपर अंकुश लगाना है । इस मनपर अंकुशरूप ब्रेक लगाते ही संसारचक्रकी गति मन्द होती जाती है । यदि अत्यन्त मजबूत ब्रेक हो तो एकदम रुक जाती है। मन के संकल्प संसारगमन-संसरणमें कितना काम करते हैं वह इसीसे स्पष्ट होजाता है । संसारकी चक्रके साथ उपमा देनेमें अत्यन्त दीर्घदृष्टि काममें लाई गई है । यह रुपक बहुत सार्थक है और अनेक प्रकारसे अर्थघटनायुक्त है । चक्रको एक समय खूब जोरसे चलाने पश्चात् उसको गति न दी जावें
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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