SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८६ । अध्यात्मकल्पद्रुम [अष्टम " बूरे संकल्प नहीं करनेवाला और तीर्थकर महाराजसे दी हुई प्राज्ञायोंके रागसे शुभ क्रिया करनेवाला प्राणी अभ्यास करनेमें मुग्धबुद्धि हो तो भी भाग्यशाली है। जो प्राणी बुरे संकल्प किया करता है और जो शुभ क्रिया में प्रमादी होता है उस प्राणीको अभ्याससे और उस टेवसे क्या लाभ ?" वसंतविलका. विवेचन-तीर्थंकर महाराजने जो कुछ कहा है वह सत्य है; बाकी सब मिथ्या है ' ऐसी सामान्य बुद्धिवाला प्राणी भी संसारसमुद्र तैर जाता है, किन्तु जो बुरे बुरे संकल्प करता हो संसारमें हिलामिला रहता हो, राजकथादि विकथामें आशक्त हो और शुभ क्रियामें प्रमादी हो वह प्राणी यदि विद्वान् हो तो भी किसी कामका नहीं है। शुद्ध श्रद्धा कितनी लाभदायक है यह यहाँ देखना है। विना शुद्ध श्रद्धाके कोई कार्य सम्पादन नहीं हो सकता, जीवकी गिनती भी तब ही होती है जब उसमें शुद्ध श्रद्धा हो अतीन्द्रिय विषयमें ही श्रद्धा रखनेकी आवश्यकता है । मनुष्य प्रवृत्तिमें प्राणीको विचार करनेका भी बहुत अवकाश नहीं मिलता है, इसलिये जिन्होंने विचार किया हों उनपर विश्वास रखकर उनके पथानुगामी होना श्रेष्ठ है । मनुष्य जीवनकाल अल्प है, बुद्धि मन्द है और अन्य व्यवहारमें कालक्षेप बहुत होता है, इसलिये बहुधा जिनके वचन प्राप्त प्रतीत होते हों उनकी परीक्षा करके उनका अनुकरण करना ही ग्रहण करने योग्य मार्ग है । एक मन चावल रसोई निमित्त चुल्हेपर चढ़ाये हों तो उनकी परीक्षा निमित्त एक चावल दबाकर देखना काफी है; इसीप्रकार प्राप्तताकी परीक्षा करलें । वीतरागदशा, शुद्धमार्गकथन, अपेक्षा. ओंका शुद्ध स्थापन, नयस्वरूपका विचार और स्याद्वादविचारश्रेणी ये आप्तताकी परीक्षा निमित्त काफी हैं। विशेष क्षयोपशम
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy