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________________ अधिकार ] शास्त्राभ्यास और वर्तन [२८५ ज्ञानी प्रमादी हो जावे, आडंबर करनेवाला हो जावे, वाहवाह करानेवाला हो जावे, आशीभाव रखकर धर्माचरण करने लगे तो उसकी बड़ी हानि होती है अर्थात् सारांशमें कहा जाय तो उसका अध:पतन हो जाता है । जिसप्रकार कर्मक्षयका प्रबल साधन ज्ञानीके हाथमें होता है उसीप्रकार कर्मबन्धन और जवाबदारीका भार भी उसपर अधिक रहता है । ज्ञानवानको बहुत सोचविचार कर कार्य करनेकी आवश्यकता है। मूल श्लोकमें शास्त्रका अभ्यास नहीं करनेवाला जो कहा गया है वह अल्प अभ्यास करनेवाले के निमित्त कहाँ गया है । इस श्लोकमें अज्ञानवादको कदापि पुष्ट नहीं किया गया है इस संपूर्ण अधिकारमें ज्ञान को जहां अल्पांश पद दिया गया है वहां विषयप्रतिभास ज्ञानके सम्बन्धमें कहा गया है । जब तत्वसंवेदन ज्ञानकी प्राप्ति होती है तब तो इस अधिकारमें वर्णन की हुई स्थिति ही नहीं रहती है। उस ज्ञानवान्को हेय उपादेयका शुद्ध निश्चय होता है, उसकी वृत्ति स्वच्छ होती है और उसकी मुखमुद्रासे शान्तरस टपकता रहता है। उस ज्ञानवालेका व्यवहार बहुत शुद्ध होताहै और उसकी तथा अल्प अभ्यासीकी कभी भी समानता नही हो सकती है। यह विशेषतया ध्यान में रक्खें कि शास्त्रकार अज्ञानवादी कभी भी पुष्टि नहीं करते हैं । यहाँ इतना कहने का उद्देश केवल यही है कि ज्ञानकी पुस्तकोंका भण्डार कब्जे में रखनेसे तथा बड़ी बड़ी सभाओं में विजय प्राप्त करने मात्रसे कुछ लाभ नहीं हो सकता है। मुग्धबुद्धि वि. पंडित. धन्यः स मुग्धमातरप्युदिताहंदाज्ञा__ रागेण यः सृजति पुण्यमदुर्विकल्पः । पाठेन किं व्यसनतोऽस्य तु दुर्विकल्पै__ दुस्थितोऽत्र सदनुष्ठितिषु प्रमादी ॥८॥ , हरिभद्र अष्टक ( ९-६)
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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