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________________ १५८ अध्यात्मकल्पद्रुम [सप्तम समीप गई तो पिताने स्वयंवरद्वारा अपना वर वरनेकी अपनी इच्छा उससे प्रगट की । पुत्रीने भी राधावेध साधनेवालेको बरनेकी अभिलाषा प्रगट की । उच्च कुलमें अपनी इच्छानुसार वर वरनेकी प्रथा पूर्वकालमें होना अनेक प्रसंगोंमें पाया जाता है । राजाने भी अपनी पुत्रीके इच्छानुसार सर्व देशोंसे राजपुत्रोंको बुलवाया । इन्द्रदत्त राजा भी अपने पुत्रों सहित उपस्थित हुआ। अपने मंत्री सुरेन्द्रदत्तको भी साथ ले आया था । स्वयंवर मंडपकी शोभा निराली ही थी । मण्डपके मध्यमें एक स्तम्भ खड़ा किया गया था। उसके ऊपर चार चार चक्र मंडाये गये थे । एक चक्रमें अनेकों आरे बनाये और प्रत्येक चक्रको इस दंगसे रखकर मिलाया कि एक दाहिनी ओर घूमने लगा और दूसरा बाई ओर घूमने लगा। उस स्तम्भपर एक सुन्दर पूतली रक्खी और उसका मुँह नीचेकी भोर कराया । नीचे एक तेलकी बड़ी भारी कढ़ाई रक्खी गई। उसके समीप कन्या पंचवर्णी फूलमाला हस्तमें लेकर खड़ी रही । नीचेकी कढ़ाईमें नजर रखकर, अपर आठ चक्रमें घूमती हुई, राधाकी दाहिनी आंखको छेदे, इसप्रकार जो राजपुत्र बाण चलावे उसको ही वरना ऐसी उसकी प्रतिज्ञा थी। राजपुत्रोंने कार्य प्रारम्भ किया । कितने ही तो अपने स्थानसे ही न उठे, कितने ही कढ़ाई तक जाकर वापीस लौट आये, कितने ही धनुष्य रखकर चले आये और इसप्रकार सब निष्फल हुए । इन्द्रदत्त राजाके बाईस पुत्रोंकी भी जब यही दशा हुई तो राजा अत्यन्त दुःखी हुआ । मंत्रीने फिर तेईसवें पुत्रकी वार्ता कह कर राजाको बोध दिलाया । राजाको सबै वार्ता स्मरण हो आई । सुरेन्द्रद. त्तको कार्य करने निमित्त राजाने हुक्म दिया । वह उठा, चला, धनुष उठाया, नीचेकी ओर नजर डाली, धनुष ताना, बानको
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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