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________________ २२२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ सप्तम कितनी ही वार भूलभरे परिणामोंको भोगना पड़ता है परन्तु जो यदि प्रथक्करण करके उसके अवयवोंकी ओर ध्यान से देखा. जावे तो गुणदोषकी परीक्षा हो जाती है। इसीप्रकार स्वमान, व्यक्तिस्वातंत्र्य आदि सबका विचार करना, उनकी आन्तरिक खोज करना और उसमें तथा आत्मिकदशा में क्या सम्बन्ध है इसका विचार करना चाहिये । फिर यदि उनमें दोष जैसा पौगलिक कुछ भी न जान पड़े तो उसका अवश्य आदर करना उचित है और जो यदि उनमें कषायका स्वरूप- अंश जान पड़े तो फिर उनपर विचार करना योग्य है । इसदृष्टिसे ठीक ठीक तगवेषणा करके, स्वमान, व्यक्तिस्वातंत्र्य आदि इस जमानेके माने हुए सद्गुणोंका जब विचार किया जायगा तब ही उनके सम्बन्धमें उपरोक्त निर्णय हो सकेगा यह निस्संदेह है । मानत्याग - अपमान सहन. सम्यग्विचार्येति विहाय मानं, रक्षन् दुरापाणि तपांसि यत्नात् । मुदामनीषी सहतेऽभिभूती:, शूरः क्षमायामपि नीचजाताः ॥ ८ ॥ "" इसप्रकार ठीक ठीक विचार कर मानको परित्याग कर और अत्यन्त कष्ट से मिलनेवाले तपका यत्न से रक्षण करके क्षमा करनेमें शूरवीर पंडित साधु नीच पुरुषोंद्वारा किये हुए अपमानको भी प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हैं । " उपजाति. विवेचन - यहाँ कषायत्यागकी पराकाष्ठा बताई गई है । तपस्या करनी और उसके साथ साथ मानका भी त्याग करना यह पहले बता दिया गया है । यहां बतलाते हैं कि नीच पुरुषोंकी ओर से अपमान होनेपर भी क्षमा धारण करनेमें
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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