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________________ १८९ "अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, मतिभ्रंश, धर्मका अनादर और मन, बचन तथा कायाके योगोंका दुःप्रणिधान ये आठ प्रकारके प्रमाद जिनेश्वर भगवानने वर्जने योग्य ___ इन विषयप्रमादोंको छोड़ने की क्या आवश्यकता है ? यह इस अधिकारमें बताया गया है। विषयसेवनसे उत्पन्न होनेवाले सुख तथा दुःख अत्यल्पकल्पितसुखाय किमिन्द्रियार्थस्वं मुह्यसि प्रतिपदं प्रचुरप्रमादः ॥ एते क्षिपन्ति गहने भवभीमकक्षे। जन्तून यत्र सुलभा शिवमार्गदृष्टिः ॥ १॥ " बहुत थोड़े और वह भी मानेहुए ( कल्पित ) सुखके लिये तूं प्रमादवान् होकर बारंबार इन्द्रियोंके विषयमें मोह क्यों करता है ? ये विषय प्राणीको संसाररूप भयंकर गहन बनमें फेंक देते हैं, जहां से मोक्ष मार्गका दर्शन भी इस जीवको सुलभ नहीं है।" वसंततिलका. विवेचन-स्वादिष्ट मिढे पदार्थोंका सेवन किया, सिंभोग किया अथवा पियानाका सुन्दर मधुर स्वर श्रवण किया; किन्तु मुख कितना मिला ? कितने समय तकका ? इसके परिणामको देखिये । इन्द्रियजनित विषयों में रमण करना यह शुद्ध आस्मिक दशा नहीं है, क्योंकि उसीके परिणामले यह जीव संसारमें पड़ता है और उसमें इतना गहरा उतर जाता है कि
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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