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________________ किया जासकता है तब फिर हे मूढ ! इसके लिये यत्न क्यों नहीं करता है ?" उपजाति. विवेचन-यह शरीर पार्थिव मिट्टीके पिण्डरूप, नाशवंत, दुर्गधी और व्याधिका घर आदि दोषोंसे युक्त है, तो फिर इससे क्या लाभ हो सकता है ? जो यदि इससे हमारे किसी भी प्रकारके लाभके होनेकी संभावना हो तो वह लाभ कर लेना चाहिये। शानी महाराज कहते हैं कि-"इन्द्रियदमन, संयमपालन आदि बड़े बड़े कार्य इस शरीरद्वारा सम्पादन होसकते हैं।" उन्हींके करने निमित्त यहां उपदेश करते हैं। विद्वानोंका कर्तव्य तथा खूबी यह है कि तहन न छोड़ेजाने योग्य खराब पदायोंका भी शुभ उपयोग ढूंढ़ निकालना चाहिये, अर्थात् इस शरीरके ऊपर लिखित अवगुणोंसे युक्त होनेपर भी जब कि यह छोड़ा नहीं जासकता है तो इससे जो जो आत्महित हो सकें उन उनके करलेनेमें किञ्चित्मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिये । अभी तो सचेत न होना और पिछे समय निकल जानेपर पश्चात्ताप करना मूर्योका काम है। इसप्रकार देहममत्वमोचनद्वार समाप्त हुआ। इस द्वारमें जो शिक्षा है उसका सारांश निम्नानुसार है: १ शरीरका पोषण करना निरुपकारी पर भार करनेके समान है। २ शरीर तेरा खुदका नहीं है लेकिन मोहराजानिर्मित बंदीखाना है। ३ शरीर तेरा सेवक नहीं है किन्तु वह मोहराजाका सेवक है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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