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________________ उनको पूज्य मुनिराजश्री कान्तिविजयजीके नामसे दोक्षाप्रदान कर श्रीवीरविजयजी नामसे भूषित किया । कुछ समय व्यतीत होने पर महाराजश्रीके उपदेशके प्रभावसे हुक्माजीको दीक्षा ग्रहण कर लेनेकी भावना उत्पन्न हुइ, अतएव उनको दाहोद नगर में सम्वत् १९१८ के फाल्गुन शुक्ला ६ को शुभ मुहूर्तमें दीक्षाप्रदान कर उनका नाम मुनिश्री हर्षविजयजी रक्खा गया । कुटुम्ब -मिलाप व मुनिश्रीकी धैर्यता. तत्पश्चात् मुनिराज श्री हर्षविजयजी अपने पूज्य गुरुमहाराजके साथ साथ विहार करते हुए अनुक्रमसे जाबुवे पहुंचे । वहांपर दीक्षाका समाचार पाकर उनके बडे भाई भुताजी तथा मुनि वीरविजयजी संसारी जेष्ट भ्राता दलसुखभाइ मुनिश्री हर्षविजयजीको वापिस अपने नगरको लौटा लेजाने निमिज्ञ आये, किन्तु पूज्य महाराजश्रीके सुन्दर उपदेशसे सन्तुष्ट हो वे शान्तिपूर्वक वापीस अपने नगरको लौट गये । पश्चात् महाराजश्रीने विहार करते करते इन्दोर शहरमें प्रवेश किया। वहां भी मुनिश्री हर्षविजयजीके संसारी भ्राता भुताजीने उनके मातुश्रीकी प्रेरणासे दो तीन अन्य साथियों को लेकर तथा एक-दो किरायेके पुलिसमेंन ( policemen ) की मदद से मुनिश्री हर्षविजयजीको उनकी इच्छा के विरुद्ध भी जबरदस्ती लेजानेका भरसक प्रयत्न किया किन्तु इन्दोर निवासी धर्मप्रेमी जैन गृहस्थों की सहायता से उनके सब प्रयत्न विफल हुए और पूज्य महाराज साहबके समझानेसे शान्तिपूर्वक वापीस लौट गये । वहांसे पूज्य महाराजश्री उज्जैनकी तरफ विहार किया तथा उज्जैनके श्रीसंघ के अनुनय विनंति करने पर पूज्य महाराजश्रीने उस वर्ष उज्जैन नगरमें चातुर्मास करना स्वीकृत किया । वहां भी मुनिश्री हर्षविजयजीकी मातुश्री भुरादे अपने जेष्ट पुत्र दलाजीकों संग ले आ पहुंची और मुनिश्री हर्षविजयजीको
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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