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________________ दीक्षाकी आज्ञा मिलना कठिन था। सो उन्होंने कुटुम्बियोंको न जनाते हुए अपने दीक्षा-ग्रहणके विचारको गुप्त रक्खा और चतुसिकी समाप्ति पर रत्नागीरीसे वापीस अपने ग्रामको न लौट कर सीधे सुरत पहुंचे और वहां पूर्वपरिचित पूज्य पंन्यासजी महाराज श्री भावविजयजीसे तथा पूज्य मुनिराज श्री नीतिविजयजी महाराजसाहबसे भेट और उनके सामने अपने दीक्षा-ग्रहणके विचारको प्रगट किया । विहारमें पूज्य मुनिराज श्री नीतिविजयजी महाराज साहबने डाह्याभाईको दीक्षित कर उनका नाम मुनि दानविजयजी रक्खा (जो पंन्यास पदवीसे विभूषित हैं ) तत्पश्चात् मुनि श्री दानविजयजी गुरु साथ विहार करते २ छाणी आये और बड़ी दीक्षाके योगमें प्रवेश किया । बडी दीक्षाका मुहूर्त निश्चय हो जाने पर मुनिश्री दानविजयजीने बडी दीक्षामें सामील होनेके लिये वाडीलालभाईको रत्नागीरी पत्र भेजा । पत्र पढ कर वाडीलालभाईने दीक्षा-महोत्सवमें सामील होनेके लिये तैयारी की और हुक्माजीको इसकी सूचना दी। हुक्माजी भी उपरोक्त महोत्सवमें सामिल होनेको तैयार हुए परन्तु उनके बड़े भाई दल्लाजीने उनको जानेसे मना किया तिस पर भी हुक्माजी बोटके बन्दर तक जा पहुंचे । बहुत झगडा होनेके बाद दल्लाजीने वाडीलालसे कहा कि तुम मेरे भाईको वापीस यहां ले कर आवोगे तब खर्चेके रुपये दूंगा अतः वाडीलाल अपने निज खर्चसे हुक्माजीको छाणी लेगया। मुनि श्री दानविजयजीकी बडी दीक्षा होने के पश्चात् पूज्य मुनिराज श्रीनीतिविजयजी महाराज साहेवने छाणीसे मालवेकी तरफ विहार किया। मार्गमें श्रावकोंके घर कम होनेसे महाराजश्रीकी प्रेरणासे नाडीलाल तथा हुक्माजी विहारमें साथ रहे .। मार्गमें महाराजश्रीकी ओरसे वैराग्यरसके सिंचनसे बाडीलालभाईकी दीक्षा लेनेकी भावना जागृत हुई अतएव महाराजश्रीने
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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