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________________ १२८ " हे चित्त ! तूं स्त्रियों के शरीरपर मोह करता है; लेकिन तूं (भस्वस्था छोड़कर ) प्रसन्न हो और जिन अंगो. पर मोह करता है उनमें प्रवेश कर । तूं पवित्र और अपवित्र वस्तु के विचार ( विवेक ) की इच्छा रखता है उसमे बराबर अच्छी तरह विचार करके उस अशुचि के ढेर से छूटकारा कर।" वसंततलिका. विवेचन-यह प्राणी बाहर के दिखावे मात्र से फंस जाता है । कर्ता कहता है कि तुझे शरीर के जिस भागपर मोह होता हो उसके अन्दर जा गहरा उतर और यह विचार कर की उसमें क्या है ? । किश्चितमात्र भी विचार कर लेगा तो कभी भी मोह न होगा। रावण जैसेने भूल की तो इसी विचार न करने के परिणाम से और नेमनाथ जैसेने संसार छोड़ दिया तो भी इसी विचार करने के परिणाम से । तुझे प्रथम से ही समझाया गया था कि स्त्री सम्बन्ध से अनेक प्रकार की उपाधि अवश्य बढ़ेगी । अनेकों महात्मा संसार का परित्याग करके जो जंगल में चले जाते हैं वह इस बन्धन को तोड़ने के लिये ही है। स्त्रीके रूप में आसक्त हुए मनुष्यरूप अनेक पतंगिये बाहरके मोह में फंसकर सुन्दर वस्त्राभूषण से भूषित परस्त्रीरूप दीपक की झाल में पड़ते हैं और फिर उनकी क्या दशा होती है यह किसी से छिपी हुई नहीं है। शृंगार के पोषण करनेवाले कवियों की कवित्वशक्ति चाहे जितनी प्रशंसनीय क्यों न हो, लेकिन उनकी मननशक्ति का यहीं अन्त होजाता है। कोई इसीप्रकार के कारणों से शान्तरसकी रसों में गिनती करने से मना १ उक्ता वसंततलिका तभजा जगौग: वसन्ततलिका में चोदह अक्षर होते हैं । - - - - - - - - - - - - - -
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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