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________________ विषयों पर प्रेम होता है और इन्द्रियों के विषयों पर प्रेम होने से चौरासी लाख फेरे फिरना प्रारम्भ हो जाता है। अतः हे भाई ! तूं वस्तुस्वरूप समझ और यह ध्यान में ला कि यह तेरी शुद्ध दशा नहीं है । इन विषयों को प्रेम करता है, परन्तु ऊपर बतायेनुसार ये तो इन्द्रजाल के समान अस्थिर हैं। इन से प्रेम कर के संसारभ्रमण करना तेरे जैसे समझदार को उचित नहीं है । समता से प्रीति क्यों नहीं करता? सब वस्तुओं का सार समता है, इस को धारण करनेवाले अनेकों जीव सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हो गये हैं। इसके सम्बन्धमें आने पर तेरी स्थिति अवश्य पलट जायगी; अतः अन्य व्यर्थ बातों को छोड़ कर तेरे स्वार्थसाधन में तत्पर हो । स्वार्थसाधन का प्रथम अंग सब जीवों पर-सब वस्तुओं पर समभाव रखना, कषायों का त्याग करना, विषय से दूर रहना और आत्मपरिणति जाग्रत करना है। सारांश में कहा जाय तो यही समता प्राप्त करना कहलाता है ॥ २९-३०॥ कषाय का सच्चा स्वरूप-उस के त्यागने का उपदेश. किं कषायकलुषं कुरुषे स्वं, केषु चिन्ननु मनोऽरिधियात्मन् । तेऽपि ते हि जनकादिरूपै रिष्टतां दधुरनंतभवेषु ॥ ३१ ॥ " हे भात्मन् ! कितने ही प्राणियों के साथ शत्रुता रख कर तूं अपने मनको क्यों कषायों से मलीन करता है ? (कारण कि) वे तेरे मातापिता मादि के रूप में अनन्त भवों तक तेरी प्रीति के भाजन रह चुके हैं " ॥ ३१ ॥ स्वागता.
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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