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________________ " सर्व संज्ञावाले प्राणी काम को जानते हैं, उनमें से कितने ही अर्थ (धनप्राप्ति) को जानते हैं, और उन में से भी कई धर्म को जानते हैं; उनमें से भी कई बैनधर्म को जानते हैं और उनमें से भी बहुत कम शुद्ध देवगुरुयुक्त जैनधर्म को जानते हैं, उनमें से भी बहुत कम प्राणी मोच को जानते हैं और उनमें से भी बहुत कम प्राणी समता को जानते हैं ॥२५॥" इन्द्रवज. विवेचन-संसारी जीव कर्म से श्रावृत होने के कारण समता के स्वरूप को न तो जानते हैं न उसका आदर ही करते हैं। यह स्वरूप बता कर कर्ता सिद्ध करता है कि समता को जाननेवाले तथा आदर करनेवाले बहुत कम हैं । पतित होने का मार्ग सदैव खुला रहता है । अनादि अभ्यास से यह जीव ऐसे निचे जानेवाले रास्ते पर शिघ्र लुढ़क जाता है। विभाव दशा के वशीभूत हुए हुए प्राणी कर्मसत्ता के श्राधीन होकर विषय की मोर दौड़ जाते हैं, कारण कि मैथुनसंज्ञा का इस जीव के साथ अनादिकाल से सम्बन्ध है। ___.. धनविजय गणि कहते हैं कि काम शब्द के उच्चारण से शब्द आदि इन्द्रियों के सर्व विषयों को समझना । एकेन्द्रिय के भी विषय होते हैं इस सम्बन्ध में यह वाक्य प्रसिद्ध है। पंचिंदिभो उ बउलो, नरोव्व सव्वविसयउवलंभा। तहवि न भन्नइ पंचिंदि, प्रोत्ति बझिदिया भावा ॥ __बकुल वृक्ष पांचों इन्द्रियों के सब विषयों को ग्रहण कर सकता है, अतः भाव से पंचेन्द्रिय है; तो भी बाह्य इन्द्रियों का अभाव होने से उसको पंचेन्द्रिय नहीं कह सकते ।" लौकिक शास्त्र में भी कहा है कि:
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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