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________________ मोह प्राणीको चारों गतियों में अनेक प्रकार के दुःख दिया करता है । देवगति में विरह दुःख और परोत्कर्ष. सहन करने का दुःख, मनुष्यगति में आजीविका का दुःख और संयोगवियोग का दुःख, तिथंचगति में मुंगे म्होंढे अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने का और शर्दी, गरमी सहन करने का दुःख और नरक गति में अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक असह्य दुःख मोह उत्पन्न करते हैं और वे इस जीव को अवश्य सहन करने ही पड़ते हैं । कषाय राग-द्वेषजन्य है और ये दोनों स्वयं मोह के बच्चे हैं अथवा स्वयं मोह ही हैं । ऊपर लिखेनुसार अनेक प्रकार के दुःख देनेवाले मोह को तो इस जीव का सचमुच दुश्मन कह सकते हैं। दुश्मन का आनंद इस जीव को भूला फिराकर दुःख देने में ही होता है । यह मोह ही स्वपर का विभाग करता है यह मेरा है और यह पराया है, ऐसा पौद्गलिक वस्तुओं में समझना यह प्रगटतया असत्य है, कारण कि इस में कोई भी आत्मिक नहीं है और आत्मिक नहीं वह अपना नहीं, इसप्रकार विभाग करनेवाला तो तेरा सचमुच दुश्मन है । अतः दुश्मन का किया हुआ विभाग तूं क्यों स्वीकार करता है ? दुनियाँ में किसी कारण से दो पक्षवालों में झगड़ा होजाता है तो उसका फैसला बीच के मनुष्यद्वारा ही होता है; परन्तु यदि उस निर्णय करने के काम को एक पक्ष के दुश्मन को सौंपा जावे तो उसका परिणाम अवश्य उनके लाभ से उलटा ही होता है-अर्थात् उनको नुकशान होता है। अतः हे चेतन् ! तेरा क्या है और पराया क्या है ? इस का विभाग तेरे हितेच्छु हो उनके पास से करा । ऐसा करेगा तो तुझे कुछ लाभ होगा और भात्मिक द्रव्य जो अब तक तेरी सत्ता में रहा है, वह प्रगटरूप से बूं प्राप्त कर सकेगा। शत्रु
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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