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________________ है। कोई भी शुद्ध देव-गुरु-धर्म का स्वरूप देखने का प्रयास नहीं करतें और अनादि मिथ्यात्व में सदैव वृथा घुडदौड़ लगाते रहते हैं। किसी किसी की मानसिक शक्ति, बुद्धि एवं विचारशक्ति जागृत होनेपर भी वे न तो हितोपदेश सुनते हैं न उस पर विचार ही करते हैं। इस प्रकार अनेक रीति से दुःख का उपभोग करते हैं, दुःखी जान पड़ते हैं अथवा भविष्य में होनेवाले दुःखों को उपार्जन करते हैं । ऐसे प्राणियोंपर करुणा एवं दया प्रगट करना करुणा भावना अथवा कृपा भावना कहलाती है। दुःख अनेक प्रकार के हैं, उन की सूची बनाना कठीन है और उसकी आवश्यक्ता भी प्रतीत नहीं होती । वे सब दुःख मानसिक एवं शारीरिक दो प्रकार के होते हैं। दूसरे शब्दों में इन का परकृत, स्वकृत और उभयकृत ऐसा भी विभाग किया जा सकता है । इस प्रकार अनेकरंगी दुःखों में से छुड़ाने की बुद्धि को तीसरी भावना कहते हैं। इस भावना के होने पर वृति बहुत निर्मल होजाती है । साधु महात्मा तथा सज्जन पुरुष जो बिना एक भी पैसे की प्राप्ति की आशा रक्खे इस संसार के प्राणियों को भवबन्धन से छुड़ाने का प्रयत्न करते हैं। यह इस भावना ही का परिणाम है और भावना की प्रेरणा ही से वे अपने जातिभाई, देशभाई अथवा मनुष्यमात्र के दुःख दूर करने को तैयार रहते हैं । तीर्थंकर महाराज को पूर्वभव में सर्व जीवों को शासनरसी बनाने की इच्छा होती है और ऐसा करने में मैत्रीभाव सब जीवों पर लागु होता है यह ऊपर बता दिया गया है; किन्तु भगवान को प्रेरणा करनेवाली भावना तो करुणा ही है । इस जगत के जीवों को दुःखी देखकर उनको दुःख का स्वरूप ज्ञात होता है तथा उस से दुःख उठाते हुए प्राणियों को देख कर उनको दुःख से छुड़ाने
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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