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________________ " अभ्युत्थानादिक विनय, वंदन, स्तुति, प्रशंसा, वैयावश्च आदि से लगाकर सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तपस्या से विशिष्ट मनुष्यों में दूसरों तथा अपनी की हुई पूजानिमित्त हुभा मन का आनन्द जो सर्व इन्द्रियोद्वारा प्रगट हो वह प्रमोदभावना है।" प्रमोदभावना की इस व्याख्या में भी मन के आनन्द का ही मुख्य भाग है, परन्तु विशेषतया यहां वर्तन भी साथ ही साथ गिना गया है। साधु ( उत्तम ) पुरुषों के नाम का तथा गुण का स्मरण मात्र करने से अनेक लाभ होते हैं । और जो कर्म का स्वरूप समझता है वह जानता है कि अमुक स्मरण से उस का दृढ संस्कार होजाता है तो फिर गत्यंतर में भी स्मरण का विषयगुण जरुर प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार प्रमोदभावना से इस भव में और परभव में बहुत लाभ होता है । किसी की निन्दा करते समय एक प्रकार का मानसिक क्षोभ होता है उस का यहां दर्शन भी नहीं होता और इस के विपरित प्रमोदभाव भावते समय ही अपूर्व आनन्द होता है । समताभावका यही लक्षण है कि उसको करते समय ही विरला ही नवीन प्रकार का पानन्द होता है और वह अनुभव ही से भलीभांति जाना जा सकता है । यह प्रमोदभावना समता का अंग है और इस के भाने में किसी भी प्रकार का बाह्य प्रयास नहीं करना पड़ता । तृतीय करुणा भावना का स्वरूप. दीनेष्वार्तेषु भीतेषु, याचमानेषु जीवितम् । प्रतिकारपरा बुद्धिः, कारुण्यमभिधीयते ॥ १५ ॥ "मशक्त, दुःखी, भय से व्याकुल और जीवन याच
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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