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________________ प्रालियों को अपनी मात्मातुख्य समझ कर उनको किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाते, इतना ही नहीं अपितु दूसरे के दुःख से दुःखी होने हैं और दूसरों को दुःखों से छूटकारा दिलाने निमित्त अपने पास जो कुछ होता है उस के व्यय करने में किंचित् मात्र मी भानाकानी नहीं करते । अन्य शास्त्रों में भी कहा है कि अष्टादशपुराणानां, सारात्सारः समुद्धृतः। परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥ " सर्व शास्त्रों का-अठारह पुरानों का मथन कर निकाला हुमा सार यही है कि-परोपकार ( दूसरो का भला करना) यही पुण्य और दूसरों को दुःख पहुँचाना यही पाप है " भतः "परोपकाराय सतां विभूतयः " सज्जन पुरुष को जो मानसिक, शारीरिक एवं मार्थिक सम्पत्ति प्राप्त होती है वह सदैव दूसरों के उपकार निमित्त ही होती है । वे उस धन से मौजशौख नहीं माणते, स्थूल विषयसुख में आनन्द नहीं पाते; किन्तु दूसरे जीवों को सुखी करने और उस निमित्त अपने प्रत्येक प्रकार के सम्पत्ति बल का प्रयोग करना ही सम्पत्ति प्राप्ति का हेतु समझते हैं। सर्व प्राणियों पर मैत्रीभाव रखना चाहिये । अपने पर कोष करनेवाले पर भी वेही भाव रखना चाहिये और कदाच न रख सके तो दूसरे पर क्रोध न कर, अपनी कर्मस्थिति विचार कर उसी पर खेद करना और उस प्रकार का नवीन कर्मबन्धन न हो इसके लिये सचेत रहना चाहिये । मैत्रीभाव रखने का अनेक शासकार उपदेश करते हैं, परन्तु जैन शास्त्र की विशेष खबी
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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