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________________ में वैरभाव त्याग करने का जो उपदेश है उस भाव को समर्थन करते हुए शान्तसुधारसकार कहता है कि:सर्वत्र मैत्रीमुपकल्पयात्म चिंत्यो जगत्यत्र न कोऽपि शत्रुः। कियहिनस्थायिनि जीवितेऽस्मिन् , किं खिद्यसे वैरिधिया परस्मिन् ॥ हे आत्मन् ! तुं सर्व स्थान पर मैत्री की कल्पना कर और इस संसार में तेरा कोई शत्रु है ऐसा विचार भी न ला । हे भाई ! तुं यहाँ कितने दिनों बैठा रहनेवाला है कि जिसके लिये व्यर्थ दूसरों पर वैर रखकर दुःख भोगता है । यहाँ थोड़े से समय तक रहना है और फिर बन्धु-बान्धवों को यही छोड़ कर चला जाना है तो फिर खेद किस लिये करे ! ऐसी बुद्धि धमा रखने से प्राप्त होती है अतः क्षमा मैत्रीभाव का एक अंग है । पुण्यप्रकाश के स्तवन में वे ही महात्मा कहते हैं किसर्व मित्र करी चिंतवो साहेलडी रे, कोई न जाणो शत्रु तो। रागद्वेष एम परिहरी साहेलडी रे, कीजे जन्म पवित्र तो ॥ क्षमा धारण करनेवाले, मैत्रीभाव उत्कृष्ट रखनेवाले-वैरी पर भी समभाष रखनेवाले गजसुकुमाल, मेतार्य, खंधक मुनि, चिलाती पुत्र, वीर परमात्मा, अञ्चकारी भट्टा आदि अनेक दृष्टान्त शास्त्रप्रसिद्ध हैं। श्रीवीर परमात्मा के तो उनको दुःख देनेवाला दुखी होगा, इस बिचार से नेत्रों में बाँसु आगये । मैत्रीभाव का यह उत्कृष्ट दृष्टान्त है । पण्डित पुरुष ' भात्मवत् सर्वभूतेषु । सर्व
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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