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________________ मध्यतां जगदप्यषा, मतिमैत्री निगद्यते ॥१३॥ " कोई भी प्राणी पाप न करो, कोई भी जीव दुःखी न हो, इस जगत कम से बचो-ऐसी बुद्धि को मैत्री कहते हैं." अनुष्टुप्. विवेचन-पांचमे श्लोक में जो भावना औषधि लेने की शिक्षा की गई. है उन भावनाओं को देखा । कितनीक भावनाओं का स्वरूप अब बताया जाता है। बारह भावना संसार का स्वरूप प्रगट करती हैं । जिन में से चार योग की भावना ( मैत्र्यादि) दूसरे जीवों के साथ किस तरह व्यवहार करना उसका यथास्थित स्वरूप बताती हैं। प्रथम मैत्री भावना (Universal Brotherhood ) बहुत अगत्य का विषय है। जमाने की विचित्रता को देखते हुए ये चारों उत्कृष्ट भावनाये नाश होती जाती हैं। उसके भावनार मालूम नहीं पडते, विरले ही होगें । जब चारों भावनाओं का स्वरूप बराबर समझने में आवेगा तब प्रत्येक भावना कितनी महत्व की है और व्यवहार में माने हुए कर्तव्यो से कितनी महान विशेषता रक्स्वती हैं यह जान पड़ेगा। इसमें स्वार्थपन का नाश प्रत्यक्ष दिख पड़ेगा । मैत्रीभाव का स्वरूप बाँधते हुए श्री हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि 'कोइ प्राणी पाप न करें ऐसी बुद्धि मैत्रीभाव कहलाती है ? कोई भी प्राणी पाप न करे ऐसी बुद्धि जब हो जाती है तब दूसरे प्राणी पाप के कारण को प्राप्त न हो ऐसा सरल व्यवहार ढूंढ कर आचरण में लाने की सामान्य बुद्धि भी प्राप्त हो जाती है और विशेषतया स्वयं तो पापात्मक कार्यों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार नये
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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