SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावार्थ:-जिस योगी का दर्शन सातवें श्लोक में कराया गया है उस का स्वरूप यहां बताया जाता है। समता सुख की प्राप्ति के अभिलाषी प्राणियों को इस श्लोक में लिखेनुसार भावना अपने सन्मुख रखनी चाहिये । किसी गुण को प्राप्त करना हो तो पहले उस का शुद्ध स्वरूप समझ कर बराबर हृदयमन्दिर में उस का स्थापन करना चाहिये । और फिर किसी प्रसंग के आने पर अथवा किसी कार्य के करने पर उस भावना को ध्यान में रखना चाहिये । इस प्रकार करने पर ही गुण प्राप्ति होती है । ऐसा किये बिना ध्यान स्थिर नहीं रहता और साध्य की स्पष्टता न हो तो अस्तव्यस्त प्रयास लगभग वृथा ही होता है । भावना के निश्चित होने पर वैसा बनने की धारणा होती है और वैसा बनने का धीरे धीरे अभ्यास करने पर वैसे बन जाते हैं । अतः समता भावना कैसी होनी चाहिये उस का हमें विचार करना चाहिये । कोई प्राणी इस जीव को गाली दे या निन्दा करें और कोई इस की स्तुति करें, कोई इस को लखों रुपयों का नुकशान करे और कोई इस को करोड़ों रुपयों का फायदा करें; कोई इस का तिरस्कार करें और कोई इस का बहुत मान करे, कोई इस के साथ लड़ाई करने को तैयार हो और कोई इस के साथ मित्रता करने का अभिलाषी हो, ऐसे ऐसे परस्पर विरोधसूचक द्विसंयोगों के उपस्थित होने पर भी जिस की मति एक समान रहती है, जिस को शत्रु और मित्र समान है, जो शत्रुता अथवा मित्रता के कारण में उस के करने वाले पात्र का कोई दोष नहीं समझता, परन्तु कर्मावृत्त आत्मिक स्वरूप को पहवान कर उस दृष्टि में अपनेआप को लीन कर के इस पात्र की भोर जरा भी जो अप्रीति नहीं लाता वह ही पुरुष सच्चा योगी है।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy