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________________ भावार्थ-अध्यात्मज्ञान का प्रथम बीज समता है। सर्व स्थितियों में मन को एकसा रखना, चाहे जैसे शुभ एवं अशुभ प्रसंग भी क्यों न उपस्थित हों किन्तु फिर भी चंचलवृत्ति धारण नहीं करना, समता कहलाती है। ऐसी मनोवृत्ति होने पर ही सचे सुख की प्राप्ति होती है। इस श्लोक में जिस सुख की व्याख्या की गई है वह समता का ही सुख है, यह सुख वास्तव में अनुभवगम्य है। इस सुख का अन्य किसी भी प्रकार से ख्याल कराना कठिन है, करीब २ अशक्य ही है। फिर भी यह जीव तो पौद्गलिक सुख में आसक्त है, इससे उस सुख का ख्याल अब तक के मामूली अनुभवानुसार बताने से ही उसका नवीन वास्तविक सुख प्राप्त करने के लिये उद्यमवंत होना सम्भव है। ऐसी स्थिति होने से उसे कहा जाता है कि हे जीव ! एक राजा अनेक प्रकार के हुक्म चलाता हों, पानी के लिये हुक्म देने पर दूध भेंट किया जाता हो, खमा खमा पुकारा जाता हो, अनेक रानियों से परिवृत्त हो और सर्व इन्द्रियों के सर्व विषयसुखों को पूर्ण आकार में भोगता हों उस के सब सुख की तूं कल्पना कर ले, तदुपरान्त राजाओं के भी मुकुटमणि सार्वभौम चक्रवर्ती की छ खण्ड ऋद्धि का सुख एकत्र कर, और देवपति इन्द्र के सब पौद्गलिक सुखों को भी इकठ्ठा कर; इन सब सुखों को एक साथ एक स्थान पर इकठ्ठा कर । तेरी कल्पना में इस से अधिक सुख आना कठिन है, परन्तु हम स्वअनुभव से कहते हैं कि इन सर्व सुखों को एकत्र कर के करोड़ो वर्ष-अनन्तकाल तक अनुभव किया हो तो भी समता से जो सुख होते हैं उसके सामने यह किसी गिनती में नहीं हैं। समता के सुख को समुद्र के समान माने तो ये एकत्रित स्थूल सुख एक बिन्दु के समान हैं । सर्व साधनसंपन्न राजाओं को, दिगविजय करनेवाले चक्रवर्ती
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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