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________________ स्वरूप दुर्ध्यान में पड़ जाता है । कितनी ही बार तो यह इतना विपरीत हो जाता है कि उस के धार्मिक कार्यों में भी दुान की बू आ जाती है और चित्तवृति डावाँडोल हो जाती है। ये तुनि ज्या क्या करता है वह नवमे चित्तदमन अधिकार में दर्शाया गया है । यहाँ पर केवल यह प्रयोजन है कि जो यह जीव मावना भाने से विमुख हो जाता है तो तुरन्त दुर्व्यानरूप पिशाच इस के हृदयमन्दिर पर आधिपत्य जमा लेता है और फिर इसे अनेक प्रकार के विचित्र एवं हास्यजनक नाच नचाता है । अतः भावना को यंत्रयुक्त माँदलिया कहा गया है । संसार में अनेकों पुरुषों की यह धारणा है कि सयंत्र मादलिये को पहननेवाले पर भूत-पिशाच के नाम से प्रसिद्ध हुई अमानुषिक प्रकृतियों का असर नहीं हो सकता । इस मान्यता पर रूपक अलंकार बाँध कर विद्वान् ग्रन्थकार कहता है कि जो तूं भावनामंत्र से मंत्रित माँदलिये को तेरे हाथ पर बांध ले तो दुर्ध्यानरूप भूत-पिशाच तेरे हृदय-मन्दिर पर अधिकार नहीं जमा सकते । दुर्ध्यान की शक्ति प्रबल आत्मवीर्य के सामने कुछ काम नहीं आती। यह जीव जिस समय शुद्ध आत्मिक दशा में रमण करने लगता है उस समय उस में इतना अपूर्व वीर्य स्फूरित हो जाता है कि उसका तौल अनुभव ही से जाना जा सकता है, कहने से नहीं । एक मात्र कर्मावृत्त स्थिति के कारण यह आत्मा बहुत समय तक उँघती रहती है, उसी से इस पर ये विभावोभाव अधिकार जमाते हैं, वरना भावना के शिघ्रतया जागृत होते ही तुरन्त ये सब भग जावेगें, नाश हो जावेंगें और दूर रहेगें। टीकाकार कहता है कि गम्य, अगम्य, कार्य कार्य,
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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