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________________ अनुभव शान की भावश्यकता होती है । हमारी वास्तविक दशा वो यह है कि जिस वस्तु के प्राप्त करने के लिये यह जीव रात. दिन जी तोड़ कर प्रयास करता है उस वस्तु के वास्तविक स्वरूप को भी यह जीव नहीं पहचानता है । संसार में अनेकों प्राणी स्वादिष्ट भोजन करने में, बढ़िया वेशकिंमती भडकीले वस्त्र पहनने में, साधारण जन समुदाय में अच्छे सुंदर दिखाई देने में, प्रथम पंक्ति की कुर्सी को सुशोभित करने में, अथवा अपनी सब के सामने वाह वाह कही जाने में सुख मानते हैं; परंतु भाप ठंडे दिल से विचार किजिये कि इस में सुख क्या है ? शरीर नाशवंत है, नाम किसी का अमर नहीं रहता और सबसे अधिक अगत्य की हकीकत तो यह है कि जब इस प्रकार के विषयों में सुख मान कर प्राप्त कि हुई सम्पत्ति ( पुण्य-धन ) खो जाती है. यो परिणाम स्वरूप पीछे दुःख होता है । जिस सुख के अन्त में दुख मिले उसे सुख कैसे कहें ? संसार के सम्पूर्ण सुख इसी प्रकार के है। विषयजन्य सुख केवल मात्र मान्यता में ही होता है। इस से किसी भी प्रकार का वास्तविक आनन्द नहीं मिलता । जो आनन्द प्रतीत होता है वो भी झुठा है, अस्थिर है, भल्प है और भन्प समय तक रहनेवाला है; फिर इस को सुख मान लेना हमारी कितनी बड़ी भारी भूल है ? । सच्चा सुख तो मन की शांति में ही है । जब मन एक विचार के विषय से दूसरी मोर दौड़ता है और एक वस्तु पर स्थिर नहीं रहता तो समझना चाहिए कि अभी तक इस को अपना वास्तविक ख्याल नहीं हुआ है। इस प्रकार के सुख प्राप्त करने का परम साधन शान्तरस की भावना को ही चित्तक्षेत्र में स्थिर करना है । इस शान्त रस की भावना से जो आनन्द प्राप्त होता है वह अनिर्वचनीय है । पार्थिव वस्तुओं में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है कि जिस कें. साथ उस
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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