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________________ विष का नाश अथवा शुद्ध संस्कार के संचय की और ही होता है। अतः इस में लेश मात्र भी पुनरुक्ति दोष नहीं लगता है। अनुपम सुख के कारणभूत शान्तरस का उपदेश सर्वमंगलनिधौ हृदि पस्मिन्, संगते निरुपमं सुखमति । मुक्तिशर्म च वशीभवति द्राक्, तं बुधा भजत शांतरसेंद्रम् ॥२॥ " सर्व मांगलिकों का निघान ऐसा शान्तरस जिस हृदय में प्रास हो जाता है वह अनुपम सुख का उपमोग करता है और मोक्षसुख एक वारगी उस के प्राधिपत्य में भाजाता है। हे पंडितों ! एसे शान्तरस को तुम भजो-सेवा करो. मावो !" स्वागवावृत्त विवेचन-सर्व प्राणियों की प्रवृत्ति किसी न किसी देव को लेकर होती है। " प्रयोजनमनुदिष्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते " बह स्वतः सिद्ध नियम है । व्यौपार का हेतु धन-प्राप्ति होती है, पढ़ने का हेतु मानसिक उन्नति तथा परीक्षा में उत्तीर्ण होना होता है, चलनेवाले का हेतु अमुक स्थान पर पहुंचने का होता है और बोलनेवाले का हेतु अमुक प्रभाव श्रोताओं के मन पर बालने का होता है । इन सब हेतुओं का परंपरागत हेतु सर्व प्राणियों को सुख प्राप्त कराने का होता है । जिस प्रवृत्ति से परिणाम में सुख की प्राप्ति न हो उस में विचारवान् प्राणी प्रवृत्ति नहीं करते है । इस से ज्ञात होता हैं कि सर्व प्रवृत्तियों का मुख्य हेतु सुख प्राप्त करना है। अब प्रश्न यह होता है कि सुख क्या वस्तुं है ? और कहां रहता है ? इन प्रश्नों के उत्तर देने में अत्यंक १ स्वागतावृत्त में ११ अक्षर. स्वागता रनभगतृष्णा च ॥
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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