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________________ समव सरण. बतलाया कि शाह सहसमलजी सूजी की धर्मपत्नी केसरबाईने अट्ठाई महोत्सव का सब भार अपने उपर लेनेका वचन दिया जो कि केवल पांचसो सातसो रूपयों का खर्च था । तत्पश्चात् महाराजश्री का उपदेश होता गया और श्रीमती केशरबाई की भावना बढती गई यहां तक की अठ्ठाई महोत्सव के साथ २ समवसरण की रचना, शान्तिस्नात्र पूजा, और महोत्सव के प्राखिर दिन स्वामिवात्सल्य करना भी स्वीकार कर लिया । इस कार्य में विशेष सहायता हंसराज व भभूतमल रायचंदजी तथा केशरबाई के भाई प्रेमचंद नथूजी लूणावावाला और इनके निज कुटुम्बी नोपचंदजी गजाजी तथा भीखमचंदजी और दानमलजी जीवराज विगेरह और इनके जरीए ही सरू से आखिर तक सफलता मिली थी । जूने मंदिरजी में पावणारूप विराजमान चार मूर्तियों का माप लेकर समवसरण की दिव्य रचना की गई, जैसे तीन गढ उनपर कांगरे, दरबाजे, तोरण, सिंहासन, अशोकवृक्ष, ध्वज, और बारह प्रकार की परिषदासे, मानों खास समवसरण का ही प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा था । रंगमण्डप की भव्य रचना स्वर्ग की स्मृति करा रही थी और कांच के झाड हांडियों गोले बडे २ ऐनक ( काच ) तथा जैनाचार्य श्री मद्विजयानन्द सूरिजी श्रीविजयवल्लभ सूरिजी पन्यासजी ललितविजयजी और मुनि ज्ञानसुंदरजी आदि महात्माओं की तस्वीरों उस म use की सुन्दरता में और भी वृद्धि तथा दर्शकों के चित्तको अपनी और आकर्षित कर रही थी । समवसरण और शान्तिस्नात्र पूजा की विधी विधान के लिए
SR No.022036
Book TitleSamavsaran Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Muni
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1929
Total Pages46
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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