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________________ समवसरण प्रकरणः है वहां निश्चयात्मक समवसरण होता है और शेष पहिले जहांपर समवसरण की रचना नहीं हुइ हो अर्थात् जहांगर मिथ्यात्व का जोर हो अधर्म का साम्राज्य वर्त रहा हो, पाखण्डियों की प्राबल्यता हो, ऐसे क्षेत्र में भी देवता समवसरण की रचना अवश्य कर. ते हैं । और जहांपर महाऋद्धिक देव और इन्द्रादि भगवान को बन्दन करने को आते हैं, वे भी देवता समवसरण की रचना करते हैं जिस से शासन का उद्योत, धर्म प्रचार और मिथ्यात्व का नाश होता है । शेष समय पृथ्वी पीठ और सुवर्णकमल की रचना निरन्तर हुआ करती है। 'दुत्थि समत्थ अस्थिय । जणपस्थिय अत्थसुसमस्या । . इत्थं थुओ लहु जणं । तित्थयरो कुणो सुपयत्थं । . भावार्थ- दुस्थितार्थ समस्त अर्थित जन व सर्व प्राणी प्रा. थित ऐसे अर्थ के लिए समर्थ यानि बालबोध के लिए यहां इस समवसरण द्वारा, स्तवनाकी जो शीघ्र-जल्दी जन प्रति श्री तीर्थकर भगवान-करो सुपद स्थित अर्थात् हे प्रभु ! हम संसारी जीवोंपर कृपा कर शीघ्र अक्षयपद दीरावे । इति.. इतिश्री समवसरण प्रकरण समाप्तम. - -
SR No.022036
Book TitleSamavsaran Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Muni
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1929
Total Pages46
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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