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________________ ६४ लघ्वर्हन्नीति (वापस) आने पर वर्ष में जो मास-वृद्धि हो उसका दुगुना ब्याज प्रत्येक मास ग्रहण करे ऐसी स्थिति हो। (वृ०) स्वदेशस्थोऽपि ऋणी धनिना याच्यमानो धनं न देयाच्चेत्किं कुर्याद्धनीत्याह स्वदेश में होने पर भी धनी द्वारा माँगे जाने पर ऋणी धन वापस न दे तो धनी को क्या करना चाहिए, इसका कथन - गत्वाभिप्रायसर्वस्वं राजानं प्रतिबोधयेत्। तद्विवेच्य नृपः . सभ्यैरुभावप्याह्वयेत्ततः॥१६॥ आदानाह्रो नियोगाहःपर्यन्त मिषयुक् धनम्। दापयेद्धनिने भूपः सव्ययं चाधमर्णकात्॥१७॥ देश में रहते हुए भी ऋणी द्वारा कर्ज न लौटाने की दशा में ऋणदाता सम्पूर्ण वृत्तान्त राजा से निवेदित करे, राजा सभासदों से उस पर विचार कर तत्पश्चात् (वादी और प्रतिवादी) दोनों को बुलवाये। प्रतिवादी द्वारा उधार लिये गये दिन से वाद के दिन पर्यन्त ब्याज सहित (मूल) धन एवं वाद के व्यय के साथ (समस्त राशि) धनवान को दिलवाये। (वृ०) आधिभेदेन वृद्धिभेदानाह - आधि के भेद से ब्याज में वृद्धि का कथन - हिरण्यधान्यवस्त्राणां द्वित्रितुर्यगुणा स्मृता। धीवृद्धिर्धनिना सर्वं वस्तुरक्ष्यं प्रयत्नतः॥१८॥ स्वर्ण, धान्य और वस्त्र की स्थापना में क्रमशः दो गुना, तीन गुना और चार गुना ब्याज लेना चाहिए और धनवान द्वारा सभी वस्तुओं की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। यो शक्तो पालितुं नैव मानवो गोधनं स्त्रियम्। चाधिं रक्षेद्यदातौ च वृद्धिं दास्यत्यनेकशः॥१९॥ जो मनुष्य, गोधन और स्त्री का पालन करने में असमर्थ हो और कोई (अन्य) उसकी रक्षा करे तो अनेक गुना ब्याज दे। (वृ०) हिरण्याद्याधौ क्रमशो द्विगुणा त्रिगुणा तुर्यगुणा वृद्धिर्दातव्या धनिना सर्वं धनं यत्नतो रक्षणीयं गो महिष्यादिकं स्त्रियं वा पालितुमशक्तः सन् २. माषयुक् प १, प २॥ चाधिरक्षे० प १, प २॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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