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________________ ५२ लघ्वर्हन्नीति सौ स्वर्णमुद्राओं का वाद होने पर मैंने तो हजार मुद्राएं ग्रहण की हैं प्रतिवादी का उत्तर अतिभूरि है। भूषणवस्त्राद्यभियोगे वस्त्राणि गृहीतानि न भूषणानि इति पक्षैकदेशव्यापि। वादी द्वारा आभूषण और वस्त्र-ग्रहण का आरोप लगाये जाने पर प्रतिवादी का उत्तर कि वस्त्र ग्रहण किया है आभूषण नहीं एकदेशव्यापी उत्तर है। एतादृशं प्रत्यर्थिलिखितुत्तरं प्राड्विवाको न श्रृणुयादित्यर्थः। प्रतिवादी द्वारा लिखित इसप्रकार के उत्तर न्यायाधीश न सुने। ततश्च - इसके पश्चात् - प्रत्यर्युत्तरमादाय तदालोच्याधिकारभृत्। पुनरावेदयेल्लातुमर्थिनं च तदुत्तरम्॥३३॥ प्रतिवादी का उत्तर लेकर उसका निरीक्षण करने के पश्चात् अधिकारी उस उत्तर का प्रत्युत्तर लाने के लिए वादी से कहे। तदालोच्य पुनश्चार्थी ऋणिलेखाभिघातकृत्। देयादुत्तरमेता वद्यत्कार्ये पुष्टिदं भवेत्॥३४॥ उस (प्रतिवादी से प्राप्त उत्तर) का निरीक्षण कर वादी पुनः प्रतिवादी के उत्तर का खण्डन करने वाला प्रत्युत्तर दे तब यह उत्तर उसके वाद का पोषक होता है। विरुद्धमन्यथा पूर्वापरत्वेन स्मृतं ततः। प्रतिज्ञाभङ्गहीनत्वे स्यातां कृत्यार्थहानिदे॥३५॥ तत्पश्चात् यदि वादी के पूर्व (प्रतिज्ञा) और पश्चात् (प्रतिवादी के उत्तर के प्रत्युत्तर में) विरोध न हो नहीं तो प्रतिज्ञा भङ्ग होती है, पक्ष कमजोर होता है और वाद के प्रयोजन की हानि होती है। (वृ०) वादिना प्रतिज्ञापले पूर्वं यल्लिखितं तथैव सविस्तरं प्रतिवाद्युक्तोत्तरदानकाले पुनर्लेख्यं अन्यथा पूर्वापरविरुद्धत्वेन प्रतिज्ञाभङ्गः पक्षहीनता च। वादी के द्वारा प्रतिज्ञापत्र में जो पहले लिखा गया है वही विस्तार सहित प्रतिवादी द्वारा कथित उत्तर का प्रत्युत्तर देते समय पुनः लिखना चाहिए नहीं तो पूर्व और पश्चात् के विरुद्ध होने से प्रतिज्ञा भङ्ग और पक्षहीनता होती है। १. ०दात्का० भ १, भ २, प १, प २॥
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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