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________________ तृतीय अधिकार ३.१८ दण्डपारुष्यप्रकरणम् नत्वा नमिजिनं सम्यग् धर्मतीर्थप्रवर्तकम्। वक्ष्यामि दण्डपारुष्यं प्रजास्थितिनिबन्धनम्॥१॥ धर्म रूपी तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले तीर्थङ्कर नमि की भलीभाँति वन्दना कर प्रजा की स्थिति के नियन्त्रण रूप दण्डपारुष्य - दण्ड की कठोरता - का कथन करूँगा। (वृ०) पूर्वप्रकरणे साहसदण्डो निरूपितः तत्साहचर्याद्दण्डपारुष्यमधुना निरूप्यते पिछले प्रकरण में साहस दण्ड का निरूपण किया गया है। इसके साथ साहचर्य के कारण अब दण्डपारुष्य का निरूपण किया जाता है - येनान्त्यजोऽङ्गेन कुधीः कस्याङ्ग छेदयेत् हठात्। तदङ्ग छेदयित्वास्य पुरात्कार्यं प्रवासनम्॥२॥ कोई कुत्सित बुद्धिवाला बलपूर्वक किसी के अङ्ग का छेदन करे तो (अपराधी) के उसी अङ्ग को काटकर नगर से निष्कासित कर देना चाहिये। क्षत्रियद्विजयोर्मोहात् काष्ठधातुविनिर्मिते। आसने वैश्यशूद्रौ चेदुपविष्टौ तदा भृशम्॥३॥ कषाविंशतिभिर्वैश्यं पञ्चाशद्भिश्च शूद्रकम्। ताडयेन्यायमार्गेण मर्यादारक्षणे नृपः॥४॥ यदि क्षत्रिय और ब्राह्मण के लिए लकड़ी और धातु से निर्मित आसन पर . क्षत्विय भ २, प २॥ पविष्टौ प १, प २॥ भिर्वेश्यं भ १, भ २, प २।। ३.
SR No.022029
Book TitleLaghvarhanniti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandracharya, Ashokkumar Sinh
PublisherRashtriya Pandulipi Mission
Publication Year2013
Total Pages318
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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